
भारत रत्न पं. मदन मोहन मालवीय इतिहास के उन विरल व्यक्तित्वों में अग्रगण्य हैं, जिन्हें राष्ट्र ने श्रद्धा और आत्मीयता से ‘महामना’ कहा। यह उपाधि मात्र सम्मान का सूचक नहीं, बल्कि उस समग्र दृष्टि की स्वीकृति है, जिसमें राजनीति, समाज, संस्कृति और शिक्षा परस्पर पृथक नहीं, बल्कि एक ही चेतना के सहगामी आयाम हैं—जो मिलकर राष्ट्रजीवन को अर्थ और दिशा प्रदान करते । 25 दिसंबर 1861 को प्रयागराज (तत्कालीन इलाहाबाद) में जन्मे मालवीय जी ने अपने जीवन के पाँच दशकों से अधिक समय तक भारतीय सार्वजनिक जीवन को दिशा दी। चार बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष, आठ बार अखिल भारतीय हिंदू महासभा और दो बार अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष रहे—पर उनका सबसे स्थायी योगदान राजनीति से भी आगे, शिक्षा के क्षेत्र में दिखाई देता है।
उन्होंने स्पष्ट कहा था कि “जनकल्याण के लिए शिक्षा से अधिक महत्त्वपूर्ण कोई विषय नहीं है, और जनता के संरक्षण व उत्थान के लिए सरकार का सबसे बड़ा कर्तव्य उन्हें सही प्रकार की शिक्षा देना है।” यह कथन आज के युवाओं के लिए भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना औपनिवेशिक भारत के लिए था। एक ऐसे समय में, जब शिक्षा केवल नौकरी पाने का साधन बनती जा रही है, मालवीय जी हमें याद दिलाते हैं कि शिक्षा मनुष्य-निर्माण की प्रक्रिया है—चरित्र, विवेक और राष्ट्रबोध की प्रयोगशाला।
आधुनिक शिक्षा-दृष्टि: प्राथमिक से तकनीकी तक
मालवीय जी को सही अर्थों में आधुनिक शिक्षाविद इसलिए कहा जाता है, क्योंकि वे शिक्षा को किसी एक स्तर तक सीमित नहीं मानते थे। 1911 में इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल में गोपालकृष्ण गोखले के “प्राथमिक शिक्षा” संबंधी प्रस्ताव का उन्होंने सशक्त समर्थन किया और 1917 में बी.एन. शर्मा के उस प्रस्ताव का भी, जिसमें प्राथमिक शिक्षा को 15 वर्षों के भीतर निःशुल्क, अनिवार्य और सार्वभौमिक बनाने की मांग की गई थी। उनका दृढ़ विश्वास था कि प्राथमिक शिक्षा के बिना औद्योगिक, तकनीकी या कृषि उन्नति की कल्पना ही नहीं की जा सकती। उनके शब्दों में, प्राथमिक शिक्षा हर प्रकार की शिक्षा की आधारशिला है।
वे चाहते थे कि बालक और बालिकाओं—दोनों—अनिवार्य और निःशुल्क शिक्षा प्राप्त करें। उनका मानना था कि इससे अज्ञान, अस्पृश्यता और सांप्रदायिक कटुता जैसी समस्याएँ स्वतः कमजोर पड़ेंगी। शिक्षा से स्वच्छता की आदतें विकसित होंगी, समाज शारीरिक, नैतिक और बौद्धिक रूप से अधिक सक्षम बनेगा और स्त्रियों व हरिजनों की सामाजिक स्थिति सुदृढ़ होगी। आज जब हम समावेशी शिक्षा और समान अवसर की बात करते हैं, तो मालवीयजी का यह दृष्टिकोण युवाओं को यह समझने में मदद करता है कि सामाजिक न्याय केवल नीतियों से नहीं, बल्कि शिक्षा की पहुँच से संभव होता है।
प्राथमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम को वे व्यावहारिक बनाना चाहते थे। पुस्तक-पठन के साथ-साथ उपयोगी कलाएँ, चित्रकला, हस्तकला, हस्तशिक्षण, संस्कृत और धार्मिक शिक्षा—सबको वे शिक्षा का अभिन्न अंग मानते थे। उन्होंने प्राथमिक स्तर पर रसायन व भौतिकी जैसे विषयों के वैकल्पिक अध्ययन पर बल दिया, जो आज की स्किल-बेस्ड शिक्षा और STEM मॉडल से सहज ही साम्य रखता है।
माध्यमिक शिक्षा को वे प्राथमिक और विश्वविद्यालय शिक्षा के बीच एक सशक्त सेतु मानते थे। 14 से 18 वर्ष के विद्यार्थियों के लिए वे ऐसी शिक्षा चाहते थे, जो आगे विश्वविद्यालय में पढ़ने योग्य बनाए और यदि कोई पढ़ाई छोड़ दे, तो उसे रोज़गार योग्य कौशल भी दे। इसी कारण उन्होंने विज्ञान के साथ औद्योगिक शिक्षा पर बल दिया और प्रत्येक ज़िले में कम से कम एक इंटरमीडिएट कॉलेज की परिकल्पना की।
तकनीकी और औद्योगिक शिक्षा के क्षेत्र में उनकी दृष्टि अत्यंत आधुनिक थी। उन्होंने जापान के मॉडल से प्रेरणा लेकर विद्युत, यांत्रिक इंजीनियरिंग, तकनीकी रसायन, हस्तशिल्प, कला-उद्योग और कृषि शिक्षा की विस्तृत योजना प्रस्तुत की। प्रत्येक उद्योग के लिए अलग माध्यमिक विद्यालय, उसके ऊपर पॉलिटेक्निक या टेक्नोलॉजी कॉलेज और शीर्ष पर विश्वविद्यालय—यह संरचना आज के वोकेशनल से यूनिवर्सिटी पाथवे जैसी ही है। वस्त्र और चीनी उद्योग के लिए हर ज़िले में तकनीकी विद्यालय, प्रबंधकों और फोरमैन के प्रशिक्षण, बुनाई, रंगाई, बढ़ईगीरी, लोहार-कार्य—यह सब उनके शैक्षिक नक्शे का हिस्सा था।
कृषि शिक्षा के लिए वे मिडिल स्कूल से ही प्रशिक्षण शुरू करना चाहते थे और कृषि में स्वतंत्र डिग्री पाठ्यक्रम की वकालत करते थे। स्त्री शिक्षा को लेकर वे अत्यंत संवेदनशील थे। उन्होंने दुख व्यक्त किया कि लड़कियों की शिक्षा उपेक्षित है और स्पष्ट कहा कि महिलाओं को उच्च शिक्षा से वंचित रखने का कोई औचित्य नहीं। आज की युवा पीढ़ी, जो जेंडर इक्विटी की बात करती है, उसके लिए मालवीयजी का यह दृष्टिकोण प्रेरक और मार्गदर्शक है।
हिंदी और आधुनिक शिक्षा
मालवीय जी का यह विश्वास अडिग था कि मातृभाषा ही शिक्षा का सर्वोत्तम माध्यम है। उनका तर्क था कि जब सरकार और समाज यह निश्चय कर लें कि विद्यालयों में स्थानीय भाषाओं में पाठ्यपुस्तकें होंगी, तब शिक्षा स्वाभाविक रूप से अधिक सुलभ, प्रभावी और सर्वसमावेशी बनेगी। 1919 में ही उन्होंने हिंदी को राष्ट्रीय भाषा के रूप में सर्वाधिक उपयुक्त बताया और स्पष्ट शब्दों में कहा—“हिंदुस्तान की उन्नति हिन्दी को अपनाने से ही हो सकती है।”
उनकी दृष्टि केवल भाषा तक सीमित नहीं थी, बल्कि सभ्यता और चेतना तक जाती थी। इसी संदर्भ में उनकी यह उपमा अत्यंत अर्थपूर्ण है—“बिजली की रोशनी से रात्रि का कुछ अंधकार दूर हो सकता है, किंतु सूर्य का काम बिजली नहीं कर सकती। इसी भांति हम विदेशी भाषा से सूर्य का प्रकाश नहीं कर सकते। साहित्य और देश की उन्नति अपने देश की भाषा द्वारा ही हो सकती है।”
हिंदी को न्यायालयों, विद्यालयों और सरकारी कार्यालयों में प्रतिष्ठा दिलाने के लिए उन्होंने आजीवन प्रयास किया। वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने अपने विश्वविद्यालय में हाई स्कूल परीक्षा में हिंदी में उत्तर देने की अनुमति दी। हिंदी लेखकों को पाठ्य पुस्तकें लिखने हेतु उन्होंने आर्थिक सहयोग दिया और 1910 में इलाहाबाद में अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन की स्थापना में निर्णायक भूमिका निभाई। आज के युवाओं के लिए उनका संदेश स्पष्ट है—वैश्विक नागरिक बनते हुए भी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़ा रहना ही सच्ची आधुनिकता है।
मालवीय जी के लिए शिक्षा केवल ज्ञानार्जन नहीं, बल्कि चरित्र-निर्माण, आलोचनात्मक चिंतन (analytical thinking) और आध्यात्मिक प्रशिक्षण का माध्यम थी। उनका विश्वास था कि आत्मा का प्रशिक्षण शरीर और मस्तिष्क जितना ही आवश्यक है। धार्मिक शिक्षा पर वे कहते थे—“सही रूप में समझाई और पढ़ाई गई धर्म-शिक्षा समस्त मानवता में सामंजस्य और आनंद को बढ़ाएगी।” इसलिए वे शारीरिक व सैन्य प्रशिक्षण को भी अनुशासन और आत्मरक्षा के लिए अनिवार्य मानते थे।
मालवीय जी का दृढ़ विश्वास था कि शिक्षा मानव जाति की अधिकांश समस्याओं का समाधान कर सकती है। आज के समय में ज्ञान ही शक्ति-संतुलन का सबसे बड़ा स्रोत है। समग्र, मूल्य-आधारित, सांस्कृतिक रूप से जुड़ी और व्यावहारिक शिक्षा—साथ ही तकनीक का विवेकपूर्ण उपयोग—समकालीन शिक्षा व्यवस्था में दिखाई देता है। नई शिक्षा नीति 2020 और यूजीसी के मालवीय मिशन शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम में उनकी दृष्टि की स्पष्ट झलक मिलती है। जब कौशल–मूल्य (skills–values) और रोजगार–चरित्र (employment–character) के संतुलन की चुनौती झेल रही है, तब मालवीयजी की शिक्षा-दृष्टि युवाओं को दिशा देती है। वे शिक्षा को संस्कृति, चरित्र, देशभक्ति, सामाजिक सेवा और राष्ट्र के औद्योगिक–कृषि विकास से जोड़ते थे। यही महामना की स्थायी और प्रासंगिक विरासत है।
(लेखिका दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से पीएचडी हैं और सामाजिक कार्यों में सक्रिय हैं)
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