आंदोलन के बहाने दंगा कराने की साजिश?

गणतंत्र दिवस के दिन देश की राजधानी में भारत की सांस्कृतिक विविधता और रक्षा शक्ति का शानदार प्रदर्शन के बीच कुछ लोगों जिस तरह खलल डाली, वह किसी बड़ी साजिश का हिस्सा होने से इनकार नहीं किया जा सकता। इजराइल अम्बेसी के सामने धमाका भी उसी का एक अभिनव प्रयोग था। ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है क्या किसान आंदोलन की आड़ में देश विरोधी ताकते दंगे की साजिश रच रहे है? खासकर तब आशंका और प्रबल होती है जब अराजक तत्वों ने लाल किले की प्राचीर पर तिरंगे की जगह किसी अन्य झंडे को लगा दिया। वहां उपद्रवियों द्वारा धार्मिक झंडा लगाना उस ध्वज का भी अपमान है और धार्मिक आस्था पर प्रहार है

सुरेश गांधी

फिलहाल, देश विरोधी ताकतों के मंसूबों पर दिल्ली पुलिस ने जिस संयम और धैर्य से स्थिति को संभालते हुए पलीता लगाया, वह सराहनीय है। क्योंकि उनकी मंशा तो यही थी कि उनके उपद्रव के जवाब में पुलिस सड़कों पर लाशों की ढेर लगा देगी और वो अपनी सियासी दुकान चलाने में कामयाब होंगे। खुशी की बात है कि इस साजिश को समझते ही जो असल किसान थे, वे देश विरोधी ताकतों से अलग हो गए और आंदोलन खत्म कर दिया। लेकिन दंगाई या यूं कहे मोदी विरोध में जल-भून रहे देश विरोधी ताकते अब भी घिनौनी साजिश से बाज नहीं आ रहे है। हालांकि हिंसा की जांच का काम पुलिस का है। आशा है कि जल्दी यह काम पूरा होगा और दोषियों को दंडित किया जायेगा। लेकिन सरकार को यह समझना होगा कि राष्ट्रीय राजधानी में इस तरह की अराजकता और हिंसा की पुनरावृत्ति न हो इसके लिए कारगर कदम उठाने हीं होंगे। वरना इजराइल अम्बेसी के सामने हुए धमाके से भी बड़ी घटना को अंजाम देने से पीछे नहीं हटेंगे उपद्रवी। वैसे भी स्वार्थपरक यह किसान आंदोलन राष्ट्र के प्रति विद्रोह का आंदोलन बन चुका है।

इस साजिश की पुष्टि उस बात से होती है, जिसमें हमारे देश के कुछ दलाल पत्रकारों और नेताओं ने यह कहकर फेक न्यूज फैलाने की कोशिश की, कि प्रदर्शनकारी की मौत पुलिस की गोली लगने से हुई है। यह अलग बात है कि समय रहते इस फेक न्यूज का गुब्बारा फूटा और सच्चाई सबके सामने आ गई और ये बात यहीं दब गई। रेडीमेड सेकुलरिज्म की पोल खुल गई। वैसे भी जब आंदोलन सरकार के खिलाफ था तो गणतंत्र दिवस के मौके पर ही ट्रैक्टर परेड क्यों निकाली गई और क्यों देश को बदनाम करने की कोशिश हुई? क्या इससे ये साबित नहीं होता कि इस आंदोलन का मकसद देश की गलत छवि को दुनिया के सामने पेश करना था, जैसा किया भी गया। लेकिन कल्पना कीजिए अगर पुलिस की गोली लगने से किसी प्रदर्शनकारी की मौत हुई होती तो क्या होता? तो सुप्रीम कोर्ट इस मामले में तुरंत कार्रवाई करते हुए केंद्र सरकार को फटकार लगाता। दिल्ली पुलिस को नोटिस जारी करके पूछा जाता कि क्यों पुलिस आंदोलन को सही तरीके से हैंडल नहीं कर पाई। इसमें मानवाधिकार आयोग की एंट्री हो जाती। पुलिस के कई जवानों की नौकरी चली जाती। हो सकता है कि इस पूरे मामले की जांच के लिए किसी रिटायर्ड जज की अध्यक्षता में कमिटी बना दी जाती और दिल्ली पुलिस को दिन रात 24 घंटे कोसा जाता। विपक्ष भी इसमें अपनी राजनीति ढूंढ ही लेता। फिर पुलिस और सरकार पर लोकतंत्र की हत्या का आरोप लगाते और ये कहते नहीं थकते कि देश में अघोषित इमरजेंसी लग गई है।

भारत के उन 134 करोड़ 95 लाख लोगों के विश्वास को भी समझने की जरुरत है, जिनके मन में देश और देश के गौरव का स्थान सर्वोच्च है। क्योंकि अक्सर जब हिंसा होती है तो मुट्ठीभर लोगों को ही भारत मान लिया जाता है और उन लोगों को हम भूल जाते हैं, जो भारत की मूल भावना में हैं। जब सेकुलरिज्म की चाशनी में लिपटे लोग एक खास धर्म का झंडा किसी राष्ट्रीय धरोहर पर फहराते हैं तो कैसे लोकतंत्र का मूल विचार अपनी जड़ों को खोने लगता है। सोचिए क्या इस दिन के लिए हमारे देश ने आजादी के लिए संघर्ष किया था? और क्या भगत सिंह ऐसे भारत के लिए सिर्फ 23 साल की उम्र में फांसी पर चढ़ गए थे? अब आप खुद तय करिए कि क्यों ना इन लोगों को देश का दुश्मन कहा जाए? खुद को किसान बताने वाले इन लोगों ने पुलिस के जवानों को बेरहमी से पीटा, हत्या करने की कोशिश की। पुलिस के जवानों पर पत्थर फेंकते हुए नजर आए। ट्रैक्टर परेड में एक ऐसा दृश्य भी देखने को मिला, जिसने भारत के गणतंत्र को शर्मसार कर दिया। इसमें घायल पुलिसवाले सड़क पर मदद का इंतजार करते दिखे, पुलिस के जवानों का ये हाल उन लोगों ने किया जो खुद को किसान कहते हैं।

कहते हैं कि कानून का पालन करने वाले लोगों को ही सरकार के बनाए किसी कानून का विरोध करने का अधिकार होता है। लेकिन इन लोगों ने एक नया उदाहरण पेश किया और ये साबित कर दिया कि इन्हें देश की व्यवस्था और संविधान में कोई विश्वास नहीं है। क्या किसान नेताओं के पास इस सवाल का जवाब है कि उनके आंदोलन में शामिल हुए वो लोग कौन हैं, जिन्होंने हिंसा की? उन्हें बताना चाहिए कि शांतिपूर्ण ट्रैक्टर परेड का वादा क्यों टूटा? क्यों तलवारें लहराई गई? उन्हें ये बताना चाहिए कि लाल किले पर एक धर्म का झंडा फहराने से गणतंत्र दिवस की शान कैसे बढ़ सकती है? ट्रैक्टर परेड का मकसद क्या पुलिस के जवानों को कुचलना था? क्या दिल्ली में घुसकर अराजकता फैलाना आंदोलन का उद्देश्य था?

वर्ष 1978 में किसान नेता और देश के पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह ने दिल्ली में ही एक किसान रैली आयोजित की थी। इसमें करीब 50 लाख किसानों ने हिस्सा लिया था। किसान गन्ने की फसल का सही दाम, सिंचाई के लिए पानी की व्यवस्था जैसी मांग के लिए आए थे। पर किसानों ने पूरी शांति के साथ अपनी रैली की और घरों के लिए लौट गए। ये होता है किसान, जो देश बनाता है वो देश बिगाड़ नहीं सकता है। आप ये भी कह सकते हैं कि चौधरी चरण सिंह जैसे नेताओं की अब कमी है। उनकी बात उनके समर्थक सुनते थे पर आज के नेता भीड़ तो इकट्ठा कर लेते हैं लेकिन उनकी कोई सुनता नहीं है और इसीलिए जब हिंसा हुई तो किसान नेता कहीं नहीं दिखे। किसी भी देश के लिए हिंसा उसका सबसे बड़ा शत्रु होती है और जब कहीं हिंसा होती है तो इसके पीछे एक संदेश भी छिपा होता है और आज की हिंसा का संदेश ये है कि जिन तीन कृषि कानूनों को लेकर आंदोलन किया जा रहा है वो आंदोलन अब हाईजैक हो चुका है और गणतंत्र दिवस पर हुई हिंसा इसे पूरी तरह साबित करती है।

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