नवरात्रि का अर्थ व महत्व


नवरात्रि के 9 दिन अत्यंत पवित्र माने जाते हैं। इस समय ब्रह्मांड में एक अद्भुत ऊर्जा का संचार होता रहता है। इन दिनों शक्ति स्वरूपा मां दुर्गा का आवाहन, पूजन एवं गुणगान किया जाता है। लोग उपवास करके अपने भीतर के कलुष को बाहर निकालते हैं एवं अपने भीतर एक स्वच्छ सकारात्मक ऊर्जा भरने का प्रयत्न करते हैं। मनुष्य अपने जीवन के दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से मुक्ति के लिए नवरात्रि में मां शक्ति की उपासना करता है, ताकि उसका जीवन श्रेष्ठ बन सके। कुछ लोग भौतिक उपलब्धियों के लिए देवी की उपासना करते हैं तो कुछ मृत्यु के बाद मुक्ति की कामना से। जो जिस भाव से देवी की उपासना करता है उसके उसी भाव की पुष्टि होती है और मां उसकी मनोकामना पूर्ण करती हैं। किंतु भगवती को तो अपने वही भक्त अधिक प्रिय हैं जो उनसे कुछ मांगते नहीं, केवल उनसे प्रेम करते हैं। वो सर्वशक्तिमान जगत जननी ऐसे भक्तों की मां बनकर, उनके सर पर अपनी कृपा व करुणा का आंचल सदा फैलाए रखती है।

     नवरात्रि का ये शुभ अवसर हमें इस बात की भी याद दिलाता है कि भयंकर समस्याओं से घिरे होने के बावजूद आशा का दामन नहीं छोड़ना चाहिए। हमें उन समस्याओं के समाधान का रास्ता ढूंढना चाहिए, क्योंकि कोई भी समस्या ऐसी नहीं होती, जिसका समाधान संभव न हो। हां ऐसा अवश्य हो सकता है कि समाधान बहुत कठिन हो एवं बहुत ढूंढने पर मिले, किंतु हमें उसके लिए प्रयत्न करते रहना चाहिए। दूसरी ओर नवरात्रि हमें नारी शक्ति से भी परिचित कराती है। यूं तो नारी को अबला कहा जाता है। पुरुष उसे कमजोर समझते हैं और नारी शोषण का शिकार होती रहती है। किंतु दुर्गा सप्तशती की कथा बतलाती है कि जिन दुष्टों को त्रिदेव भी नहीं मार सके थे, नारी शक्ति की प्रतीक देवी दुर्गा के हाथों ही उनका वध होता है। जो दुष्ट सदैव नारी और निर्बल व कमजोर लोगों को तुच्छ समझते हैं और अपने शोषण का शिकार बनाते हैं, वे नारी के ही हाथों मारे जाते हैं। नवरात्रि स्त्रियों के अंदर एक जागृति एवं चेतना पैदा करती है कि उन्हें स्वयं को कमजोर और हीन नहीं समझना चाहिए। बल्कि अपने भीतर की शक्ति को पहचानकर, शक्ति स्वरूपा बनना चाहिए। उन्हें जानना चाहिए कि वे दुर्गा रूपी शक्ति का ही एक अंश हैं और उनके भीतर भी वही शक्ति छुपी है। बस उसको जागृत करने की आवश्यकता है।

      ईश्वर के बाद नारी को ही सृजन की शक्ति प्राप्त है। वो अपनी कोख में 9 माह संतान को धारण कर, उसे काया प्रदान करती है और जन्म देती है। मां बनकर उसका पालन-पोषण करती है एवं उसकी प्रथम गुरु बनकर उसे अच्छी शिक्षा देती है। एक नारी ही समाज का आधार है, जो समाज में अच्छे भावों को भरकर, उसे सुसंस्कृत समाज बनाती है। मां को प्रथम गुरु कहा गया है। संतान मां के गर्भ से सीखना शुरु करता है और फिर मां की गोद में लोरी सुनने से लेकर, प्रारंभिक शिक्षा के रूप में उसके अंदर सद्गुणों का विकास होता जाता है। बच्चे के व्यक्तित्व का निर्माण मुख्य रूप से मां के द्वारा ही होता है। नारी केवल मां के रूप में ही नहीं बल्कि बहन, पत्नी व बेटी के रूप में भी पुरुष के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। प्रेमिका या पत्नी के रूप में नारी पुरुष की प्रेरणा बन जाती है और उसकी सफलता य असफलता के पीछे उसी का हाथ होता है।

       आज नारी पुरुषों से बराबरी की होड़ में अपने मौलिक गुणों को पीछे छोड़ती जा रही है। ये मौलिक गुण हैं दया, क्षमा, करुणा, लज्जा एवं स्नेह। यही कारण है कि आज समाज की स्थति दयनीय होती जा रही है। क्योंकि जो मां बच्चों का चारित्रिक निर्माण करती थी, वह आज अपने ही गुणों को भूल चुकी है। इसलिए आज की नारी को भौतिक उन्नति के साथ-साथ अपनी मानसिक उन्नति को भी जारी रखना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि वह भौतिक उन्नति की होड़ में अपना मानसिक धरातल ही खो दे। नारी की भावपूर्ण शिक्षा के बिना ये समाज मरुस्थल की भांति हो जाएगा। जहां प्रेम, ईमानदारी, निष्ठा व लगाव की एक बूंद न होगी। होगा तो केवल छल, कपट, दुराचार और भ्रष्टाचार। इसलिए नवरात्रि से यह भी सीखना बहुत जरूरी है कि जब मनुष्य अपने मानवीय गुणों को खो देता है तो वह कैसे एक असुर बन जाता है और फिर उसका अंत स्वयं प्रकृति ही कर देती है। स्त्री हों या पुरुष जब वो सांसारिकता में इतने अधिक ओतप्रोत हो जाते हैं कि उन्हें उसके अतिरिक्त कुछ ध्यान ही नहीं रहता। एक दिन उन्हें अपने किए हुए कर्मों का परिणाम भुगतना होगा, इस बात को भी वे विस्मृत कर देते हैं, तो फिर उनके कर्म सभी मर्यादाओं को लांघ कर दुष्कर्म की श्रेणी में आ जाते हैं और इसी स्थिति को पापाचार कहा गया है। पाप-पुण्य की अवधारणाएं मात्र कपोल कल्पित नहीं हैं। इसे हमें इस तरह समझना चाहिए, जैसे हम धरती में जैसा बीज बोएंगे, वैसी ही फसल पैदा होगी। इसी प्रकार हम जिस प्रकार के कर्म करेंगे, हमें वैसा ही परिणाम भुगतना होगा। यही इस संसार का नियम है। साधनाएं एवं उपासनाएं तन-मन को शुद्ध बनाने के लिए की जाती हैं। लेकिन कुछ लोगों को भ्रांति है कि वे बुरे कर्म करके भी साधनाओं और उपासनाओं के द्वारा, उनसे होने वाले परिणामों से बच सकते हैं, किंतु ऐसा बिल्कुल नहीं है। कर्मों का परिणाम तो हर हाल में भुगतना ही होगा। साधनाओं व उपासनाओं के करने का ध्येय मात्र यही है कि हम ऐसे बुरे कर्मों को करने की इच्छाओं से बचे रहें और अपने जीवन को आध्यात्मिक उन्नति के पथ पर अग्रसित रखें।

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