…..ना जाने कहा खो गया हमारा वो सुकून, वो बेफिक्री

शाश्वत तिवारी

सिनेमा हॉल में देखिये, फिल्म का आखिरी सीन चल रहा है लगता है कि अब दो-चार मिनट में फिल्म खत्म हो जायेगी, लोग एग्जिट के पास जाकर खड़े हो जाते हैं, फिल्म ख़त्म होते ही ऐसे भागते हैं जैसे अब तक जेल में थे। ट्रेन अगर अपने गंतव्य पर पहुँचने वाली हो तो लोग पंद्रह मिनट पहले सामान लेकर खानदान सहित दरवाजे पर ऐसे लद जाते हैं कि ट्रेन क्या पता रुके न रुके, धीमी होते ही बीवी बच्चों समेत कूद जाना है। अभी कुछ दिन पहले मैंने देखा, ओपन एयर थिएटर में क्लासिकल म्यूजिक का प्रोग्राम था। लोगों को पता चल गया था कि ये आखिरी परफोर्मेंस है तो दस मिनट पहले कुछ कद्रदान ये कहते हुए निकल गए कि बाद में पार्किंग में भीड़ हो गयी तो गाडी फँस जायेगी, निकल लेते हैं।

हमारे जीवन से धैर्य, तसल्ली, पेशेंस कहाँ चला गया? रील्स का जो ये ज्वालामुखी फटा है ये यही तो बता रहा है कि हम तीन मिनट का वीडियो भी शांति से नहीं देख सकते. हमें जानने की जल्दी तो है, सब कुछ जानना है लेकिन उसे समझने का धैर्य नहीं है। OTT वगैरह पर एक नया आप्शन पैदा हुआ है जो वीडियो की गति बढ़ा देता है, 1x, 1.5x, 2x. यानी अगर आप दो घंटे की एक फिल्म 2x स्पीड में देखेंगे तो वो जल्दी चलकर एक घंटे में ख़त्म हो जायेगी। उन्हें ये आप्शन देने की ज़रूरत इसीलिए ही तो पड़ी होगी कि कुछ लोग इस तरह फिल्म देख रहे होंगे।

सोचिये आप ‘मुग़ल-ए-आज़म’ का सलीम-अनारकली का प्रणय सीन देख रहे हैं बैकग्राउंड में तानसेन गा रहे हैं। अब इसे 2x स्पीड में देखिये तानसेन तो हनी सिंह लगेंगे और सलीम-अनारकली टॉम एंड जेरी। आप माने ना माने आज हमने अपनी जिंदगी से ठहराव खो दिया है। अब हम रुक कर नहीं सोचते, थम कर उस गाने को पूरा नहीं सुनते जो हमारी आत्मा तक पहुँचने की कुव्वत रखता है। ‘साहिब बीवी और गुलाम’ जैसी क्लासिक फिल्म हमें स्लो लगती है। हम एक पांच सौ पेज की किताब नहीं पढ़ना चाहते इसलिए फेसबुक पर मैगी लेखकों का उदय हो रहा है जो आपको मोटी-मोटी किताबों में से कुछ उत्तेजक हिस्से निकाल कर पेश कर देते हैं और आपको लगता है हमने सब कुछ जान लिया। कहते हैं God is in the details लेकिन God को भी कहाँ पता था कि डिटेल्स जानने की फुर्सत लोगों के पास रहेगी नहीं। किताबें तो बहुत दूर की बात रही लोगों के पास इतना धैर्य नहीं बचेगा कि वो एक तीन पेज की फेसबुक पोस्ट पढ़ पायें। वैसे तो ढाई पेज की चेखव की ‘वांका’ पढ़ना ही काफी है अगर हम वांका के दर्द को महसूस कर पायें तो।

तसल्ली से एक बार थम कर, रुक कर, ठहर कर सोचिये कि ये जो जल्दी दिखा कर आप समय बचा रहे हैं इसका आप क्या उपयोग करने वाले हैं? ज़रा सोचिये कि ये जो जल्दी दिखा कर आप खो रहे हैं उसकी कीमत क्या है? सूचनाओं का ये अम्बार जो हमारे दिमाग में सतत खलल मचाये हुए है वो हमें कहीं रुकने नहीं दे रहा है। एक तीन पेज की कविता पढ़कर उसको अपनी आत्मा तक पहुँचने देना और फिर उससे एक बेहतर संवेदनशील इंसान बनकर निकलने का वक़्त नहीं है हमारे पास। आपको और मुझे रुकने की ज़रूरत है। सब कुछ जानना हमारे लिए ज़रूरी नहीं है। हमारे पास वक़्त की कोई कमी नहीं है। हमने जो ये शिगूफा छेड़ रखा है ना कि टाइम नहीं है। ये बकवास बात है। बहुत वक़्त है हमारे पास, इसलिए रुकिए, ठहरिये और बैठ जाइए। सिनेमा हॉल से भागने की ज़रूरत नहीं है, ट्रेन से कूद कर कहीं नहीं जाना है, रिमोट को एक तरफ रखकर फिल्म को देखना है और किसी अच्छी किताब के दो पेज पढ़कर रूककर सोचना है कि क्या पढ़ा। क्षणों को अपने अन्दर आत्मसात नहीं किया तो रोबोट बन जायेंगे। बन क्या जायेंगे बन ही रहे हैं, आज आप का अपने ऊपर से कंट्रोल खत्म हो गया है कोई और ही है जो आप को कंट्रोल कर रहा है है। आप पूरी तरह टीवी, मोबाइल, लैपटॉप के कहने पर ही काम कर रहे है। एक मिनिट भी मोबाइल के बिना जीना मुश्किल है।

(वरिष्ठ पत्रकार, लेखक, सामाजिक चिंतक, विचारक है)

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