भाजपा सांसद भोला प्रसाद सिंह नहीं रहे। बेबाकी उनकी पहचान थी..

राजनीति में दल परिवर्तन नई प्रवृति नहीं है। राज्य में ऐसे राजनेताओं की कमी नहीं है, जिन्होंने समय-समय पर दल परिवर्तन किया। लेकिन उनकी राजनीति मूल चिंतनधारा के आसपास ही रही। कुछ ऐसे भी हैं, जिन्हें ठीक विपरीत धारा की राजनीति में भी कामयाबी मिली। इस लिहाज से देखें तो दिवगंत सांसद भोला प्रसाद सिंह अपनी तरह के इकलौते नेता थे, जिन्हें राजनीति की धारा बदलने से भी कभी परहेज नहीं हुआ। ताज्जुब की बात यह कि वे कहीं अनफिट भी नहीं हुए। जिस धारा से जुड़े, उसमें समाहित हो गए। बेबाकी उनकी पहचान थी। इसके चलते अक्सर वे दलीय सीमा लांघ कर अपनी बात कह लेते थे।

राबड़ी को बता दिया था दुर्गा

दस साल के अंतराल पर 2000 में भोला बाबू विधायक बने। सात दिनों के लिए नीतीश कुमार की सरकार बनी। फिर राबड़ी देवी मुख्यमंत्री बन गईं। भाजपा मुख्य विपक्षी पार्टी थी। विधानसभा में भोला बाबू ने अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई के प्रसंग में राबड़ी देवी की जमकर तारीफ की। उन्हें दुर्गा बताकर संबोधित किया।

वह अपराधियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की मांग कर रहे थे। विपक्ष के लोग हैरत में थे। सत्ता पक्ष के लोगों को भी हैरानी हो रही थी। भोला बाबू पक्ष-विपक्ष की प्रतिक्रिया की परवाह किए बिना बोले जा रहे थे। सदन से बाहर निकले तो अपने दल के बदले सत्तारूढ़ राष्‍ट्रीय जनता दल (राजद) के विधायकों ने उन्हें घेर लिया।

राजग में रहते नीतीश से उलझे

ऐसा नहीं है कि उनकी पहचान सिर्फ सत्ता की तारीफ करने वाले नेता की थी। सरकार की आलोचना से भी उन्हें गुरेज नहीं था। इस हद तक कि राष्‍ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) में रहते उन्होंने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी से उलझने में भी देरी नहीं दिखाई।

सुनने-सुनाने का गजब का था धैर्य

वे उलझते थे। तारीफ भी करते थे। उनके मन में किसी के प्रति स्थायी कटुता का भाव नहीं रहता था। सुनाने का माद्दा था तो सुनने का धैर्य भी।

दिलचस्‍प रहा राजनीतिक सफर

उनका राजनीतिक सफर दिलचस्प है। शुरूआत बिना दल के हुई। 1967 का पहला चुनाव निर्दलीय जीते। उसके बाद कम्युनिस्ट पार्टी में चले गए। उस समय बेगूसराय जिले में राजनीति की दो धारा ही सक्रिय थी। कम्युनिस्ट और कांग्रेस। भोला बाबू कम्युनिस्ट से कांग्रेस में शिफ्ट कर गए। 1972 से 1990 तक उनका जुड़ाव कांग्रेस से रहा। इस अवधि में लगातार विधायक रहे। राज्य मंत्रिपरिषद में उन्हें दो बार रहने का मौका मिला। एक बार गृह राज्यमंत्री और दूसरी बार शिक्षा राज्यमंत्री। कांग्रेस में रहने के समय उन्होंने उस पार्टी के मूल संस्कार को ग्रहण कर लिया था। विनम्रता और दबंगई के किस्से साथ-साथ चलते थे।

1990 से 2000 का दौर उनके लिए ठीक नहीं कहा जा सकता है। इस अवधि में वे किसी सदन के सदस्य नहीं थे। राज्य के साथ बेगूसराय से भी कांग्रेस की चुनावी संभावनाएं खत्म हो रही थीं। उनके गृह जिले में तत्कालीन जनता दल, बाद में राजद और कम्युनिस्टों का चुनावी गठजोड़ बनता था।

यह गठजोड़ इतना मजबूत था कि किसी तीसरे दल के लिए जगह ही नहीं बची थी। भोला बाबू का लचीला रूख काम आया। उन्हें राजद ने राजी खुशी अपना लिया। कुछ दिनों तक संगठन में रहे। मगर, दूरदृष्टि वाले भोला बाबू ने देख लिया कि सामाजिक समीकरण के लिहाज से राजद उनका स्थायी ठिकाना नहीं हो सकता है।

निर्दलीय, वाम, मध्यमार्गी कांग्रेस, समाजवादी जनता दल और उसके बाद दक्षिणपंथी कही जानेवाली भारतीय जनता पार्टी (भाजपा)। भोला बाबू के लिए भाजपा सबसे मुफीद साबित हुई।

खराब परिस्थिति में भी विचलित नहीं होते थे भोला बाबू

नौ साल विधायक, नौ साल सांसद और एक साल मंत्री। सबसे बड़ा गुण उनका साहस था, जिसके दम पर बहुत खराब परिस्थिति में भी विचलित नहीं होते थे। गंभीर बीमारी के बावजूद इसी साहस के दम पर वे साढ़े पांच साल तक गंभीर बीमारी से संघर्ष करते रहे।

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