आत्ममुग्धता, तानाशाही प्रवृत्ति, अवसरवाद, वंशवादी महत्वाकांक्षाएं ही आपातकाल का कारण : जितेंद्र सिंह

नई दिल्ली : प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री डॉ. जितेंद्र सिंह ने शनिवार को दिल्ली विधानसभा में आयोजित एक संगोष्ठी में कहा कि आत्ममुग्धता, तानाशाही प्रवृत्ति, अवसरवाद, लोकतांत्रिक सोच की कमी और वंशवादी महत्वाकांक्षाएं– यही वे लक्षण थे, जिनके कारण 1975 में आपातकाल थोप दिया गया। उन्होंने कहा कि दुर्भाग्यवश ये प्रवृत्तियां आज भी हमारे राजनीतिक परिदृश्य में मौजूद हैं।

डॉ. सिंह विधानसभा परिसर में आयोजित “भारतीय लोकतंत्र और संविधान का सबसे अंधकारमय दौर : ना भूलें, ना क्षमा करें” विषयक संगोष्ठी को संबोधित कर रहे थे। इसका आयोजन आपातकाल की 50वीं बरसी पर किया गया। इस अवसर पर पूर्व केंद्रीय मंत्री सत्यनारायण जटिया, वरिष्ठ पत्रकार रजत शर्मा, दिल्ली विधानसभा उपाध्यक्ष मोहन सिंह बिष्ट भी मंच पर उपस्थित रहे। कार्यक्रम में “आपातकाल@50 शीर्षक पर एक विशेष बुकलेट का विमोचन किया गया। इसके साथ ही एक डॉक्युमेंट्री का प्रदर्शन भी किया गया।

केंद्रीय राज्यमंत्री डॉ. सिंह ने कहा कि 21 महीने के आपातकाल का काला कालखंड भारत के हर नागरिक के जीवन को प्रभावित करने वाला था। मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए, प्रेस पर सख्त सेंसरशिप थोप दी गई और हजारों लोगों को बिना मुकदमा चलाए कैद कर लिया गया। शहरी विकास के नाम पर जबरन नसबंदी और बड़े पैमाने पर तोड़फोड़ की गई। 42वां संविधान संशोधन अधिनियम-1976 के जरिए लोकसभा और राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल पांच से बढ़ाकर छह वर्ष कर दिया गया, जिसे 44वां संविधान संशोधन अधिनियम-1978 द्वारा वापस लिया गया।

विधानसभा अध्यक्ष विजेंद्र गुप्ता ने कहा कि आपातकाल के बाद जो जांच शुरू हुई, वह अभी अधूरी है। शाह आयोग की रिपोर्ट (1978) समस्त मानवाधिकार उल्लंघनों और प्रशासनिक अतिक्रमणों की व्यापक जांच नहीं कर सकी। अब समय आ गया है कि एक नया आयोग गठित कर आपातकाल के दौरान और बाद में हुए दमन और अत्याचारों की विस्तृत जांच कराई जाए। उन्होंने सवाल उठाया कि “आपातकाल के दौरान 42वें संशोधन के माध्यम से संविधान में ‘समाजवादी’ और ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्द क्यों जोड़े गए? संविधान जैसे दस्तावेज में इतने बुनियादी परिवर्तन किसी राष्ट्रीय बहस और सहमति के बिना नहीं किए जा सकते। हर सरकार की जिम्मेदारी है कि वह आपातकाल से मिली सीख को जीवित रखे और संविधान की पवित्रता को कभी भी कमजोर न होने दे। इसी उद्देश्य से ऐसे जागरूकता कार्यक्रम और संगोष्ठी किया जाना आवश्यक है।

पूर्व केंद्रीय मंत्री जटिया ने कहा कि संविधान की प्रस्तावना उसकी आत्मा है, जो यह स्पष्ट करती है कि यह संविधान ‘जनता द्वारा और जनता के लिए’ बना है। किसी एक नेता को यह अधिकार नहीं कि वह तानाशाही प्रवृत्तियों के चलते इसके मूल स्वरूप को बिगाड़े।

वरिष्ठ पत्रकार रजत शर्मा ने आपातकाल के दौरान एक छात्र कार्यकर्ता के रूप में अपने संघर्ष की मार्मिक स्मृति साझा करते हुए कहा, “मैं उस समय सिर्फ 17 वर्ष का था जब मुझे आपातकाल के विरुद्ध नारे लगाने और युवाओं को संगठित करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। मैं अरुण जेटली, विजय गोयल और अन्य युवा नेताओं के साथ विश्वविद्यालय परिसरों में विरोध-प्रदर्शन किया करता था। सेंसरशिप के पहले दिन ही हमने ‘मशाल’ नामक एक पर्चा गुपचुप तरीके से छापकर वितरित किया। इसके लिए मुझे पुलिस की बर्बरता झेलनी पड़ी, लेकिन हम चुप नहीं बैठे।

विधानसभा में भाजपा के मुख्य सचेतक अभय वर्मा, पूर्व सांसद रमेश बिधूड़ी, कई विधायक, वरिष्ठ पत्रकार, संविधानविद्, प्रतिष्ठित विद्वान, नौकरशाह, नागरिक समाज के प्रतिनिधि एवं आपातकाल के भुक्तभोगी उपस्थित रहे। सभी ने लोकतंत्र की रक्षा के लिए सामूहिक आत्ममंथन और सतर्कता की आवश्यकता पर बल दिया। संगोष्ठी में अध्यक्ष गुप्ता ने द इमरजेंसी डायरीज़ नामक पुस्तक भी वितरित की, जिसमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के योगदान के बारे में चर्चा की गई है।

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