कार्तिक पूर्णिमा आज, जानें क्या है महत्व और क्यों किया जाता है दीपदान

कार्तिक मास की पूर्णिमा के दिन कार्तिक पूर्णिमा मनाई जाती है. कार्तिक पूर्णिमा को कई जगह देव दीपावली के नाम से भी जाना जाता है. इसके अलावा कार्तिक पूर्णिमा को त्रिपुरारी पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है. मान्यता है कि इस दिन भगवान विष्णु की खास पूजा और व्रत करने से घर में यश और कीर्ति की प्राप्ति होती है. इस दिन दीपदान, स्नान, भजन, आरती, दान आदि का विशेष महत्व होता है. 

धर्म ग्रंथों के मुताबिक, इसी दिन भगवान शिव ने तारकाक्ष, कमलाक्ष व विद्युन्माली के त्रिपुरों का नाश किया था. त्रिपुरों का नाश करने के कारण ही भगवान शिव का एक नाम त्रिपुरारी भी प्रसिद्ध है. इस दिन गंगा-स्नान व दीपदान का विशेष महत्व है. इसी पूर्णिमा के भगवान विष्णु का मत्स्यावतार हुआ था. कई तीर्थ स्थानों में इसे बड़े पैमाने पर मनाया जाता है. 

क्या है पूजा-विधि
कार्तिक पूर्णिमा के दिन सुबह उठकर ब्रह्म मुहूर्त में स्नान करें. सुबह के वक्त मिट्टी के दीपक में घी या तिल का तेल डालकर दीपदान करें और भगवान विष्णु की पूजा करें. इस दिन श्री विष्णुसहस्त्रनाम का पाठ किया जाता है, अगर संभर हो तो पाठ करें. घर में हवन और पूजन करें. घी, अन्न या खाने की कोई भी वस्तु दान करें. शाम के समय भी मंदिर में दीपदान करें.

कार्तिक पूर्णिमा का महत्‍व
कार्तिक पूर्णिमा का त्‍योहार पांच दिनों तक मनाया जाता है. इसकी शुरुआत प्रबोधिनी एकादशी के दिन होती है जो महीने का 11वां दिन होता है. त्‍योहार कार्तिक पूर्णिमा के दिन खत्‍म होता है, जो इस महीने की शुक्‍ल पक्ष का 15वां दिन होता है. कार्तिक पूर्णिमा के दिन गंगा स्नान करना बेहद शुभ माना जाता है. मान्यता है कि गंगा स्नान के बाद किनारे दीपदान करने से दस यज्ञों के बराबर पुण्य मिलता है. 

क्यों किया जाता है दीपदान
मान्यता है कि कार्तिक मास की पूर्णिमा को दीप जलाने से भगवान विष्णु की खास कृपा मिलती है. घर में धन, यश और कीर्ति आती है. इसीलिए इस दिन लोग विष्णु जी का ध्यान करते हिए मंदिर, पीपल, चौराहे या फिर नदी किनारे बड़ा दिया जलाते हैं. दीप खासकर मंदिरों से जलाए जाते हैं. इस दिन मंदिर दीयों की रोशनी से जगमगा उठता है.

देव दीपावली 
दिवाली के 15 दिनों बाद कार्तिक पूर्णिमा वाले दिन देव दीपावली मनाई जाती है. भगवान विष्णु के मत्स्य अवतार में जन्म लेने और भगवान शिव द्वारा राक्षस तारकासुर और उनके पुत्रों का वध करने की वजह से मंदिरों में ढेरों दीपक जलाए जाते हैं. देवताओं को चढ़ाए जाने वाले इन्हीं दीपों के पर्व को देव दीपावली कहा जाता है. 

पौराणिक कथाएं
कार्तिक पूर्णिमा के बारे में माना जाता है कि इसकी शुरुआत तब हुई थी जब भगवान शिव ने राक्षसों के राजा त्रिपुरासुर का वध किया था. इसीलिए इसे त्रिपुरी पूर्णिमा या त्रिपुरारी पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है. कहा जाता है कि त्रिपुरासुर ने देवताओं को पराजित कर उनके राज्‍य छीन लिए थे. उसकी मृत्‍यु के बाद देवताओं में उललास का संचार हुआ, इसलिए देव दिवाली कहा गया. देवताओं ने स्‍वर्ग में दीये जलाए. आज भी कार्तिक पूर्णिमा के दिन मंदिरों में और गंगा नदी के घाटों पर दीये प्रज्‍वलित किए जाते हैं.

कार्तिक पूर्णिमा व्रत कथा
दैत्य तारकासुर के तीन पुत्र थे- तारकाक्ष, कमलाक्ष व विद्युन्माली. जब भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय ने तारकासुर का वध कर दिया तो उसके पुत्रों को बहुत दुःख हुआ. उन्होंने देवताओं से बदला लेने के लिए घोर तपस्या कर ब्रह्माजी को प्रसन्न कर लिया. जब ब्रह्माजी प्रकट हुए तो उन्होंने अमर होने का वरदान मांगा, लेकिन ब्रह्माजी ने उन्हें इसके अलावा कोई दूसरा वरदान मांगने के लिए कहा.
 
तब उन तीनों ने ब्रह्माजी से कहा कि- आप हमारे लिए तीन नगरों का निर्माण करवाईए. हम इन नगरों में बैठकर सारी पृथ्वी पर आकाश मार्ग से घूमते रहें. एक हजार साल बाद हम एक जगह मिलें. उस समय जब हमारे तीनों पुर (नगर) मिलकर एक हो जाएं, तो जो देवता उन्हें एक ही बाण से नष्ट कर सके, वही हमारी मृत्यु का कारण हो. ब्रह्माजी ने उन्हें ये वरदान दे दिया.

ब्रह्माजी का वरदान पाकर तारकाक्ष, कमलाक्ष व विद्युन्माली बहुत प्रसन्न हुए. ब्रह्माजी के कहने पर मयदानव ने उनके लिए तीन नगरों का निर्माण किया. उनमें से एक सोने का, एक चांदी का व एक लोहे का था. सोने का नगर तारकाक्ष का था, चांदी का कमलाक्ष का व लोहे का विद्युन्माली का.

अपने पराक्रम से इन तीनों ने तीनों लोकों पर अधिकार कर लिया. इन दैत्यों से घबराकर इंद्र आदि सभी देवता भगवान शंकर की शरण में गए. देवताओं की बात सुनकर भगवान शिव त्रिपुरों का नाश करने के लिए तैयार हो गए. विश्वकर्मा ने भगवान शिव के लिए एक दिव्य रथ का निर्माण किया.
 
चंद्रमा व सूर्य उसके पहिए बने, इंद्र, वरुण, यम और कुबेर आदि लोकपाल उस रथ के घोड़े बने. हिमालय धनुष बने और शेषनाग उसकी प्रत्यंचा. स्वयं भगवान विष्णु बाण तथा अग्निदेव उसकी नोक बने. उस दिव्य रथ पर सवार होकर जब भगवान शिव त्रिपुरों का नाश करने के लिए चले तो दैत्यों में हाहाकर मच गया.

दैत्यों व देवताओं में भयंकर युद्ध छिड़ गया. जैसे ही त्रिपुर एक सीध में आए, भगवान शिव ने दिव्य बाण चलाकर उनका नाश कर दिया. त्रित्रुरों का नाश होते ही सभी देवता भगवान शिव की जय-जयकार करने लगे. त्रिपुरों का अंत करने के लिए ही भगवान शिव को त्रिपुरारी भी कहते हैं.

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