चुनाव परिणाम बताते हैं बिहार में विपक्ष की जातिवादी गोलबंदी हवा हो गई है…

सियासी वजूद की पैमाइश दो तरीके से होती है। एक, उस व्यक्ति के मुरीद कितने लोग हैं और दूसरा, विरोधी किस अंदाज वाले हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सौभाग्यशाली हैं, जिनकी मुरीद जनता है और विरोधी महज कोसने वाले। चुनाव में समां बांधने के लिए इससे अधिक की जरूरत भी नहीं होती। टीम माेदी ने इसे बखूबी समझा। उनकी रणनीति ने जाति केंद्रित बिहार में जात व जमात की हवा निकालकर चुनाव को विकास व राष्‍ट्रवाद के मुद्दों पर ला खड़ा किया।
विपक्ष की जातीय गोलबंदी की निकाल दी हवा
अब तक के चुनावी विश्लेषणों से स्पष्ट है कि व्यक्ति केंद्रित प्रचार का अंदाज बदल देने भर से जीत की गारंटी बढ़ जाती है। नरेंद्र मोदी इसके ताजातरीन उदाहरण हैं। पिछली बार वे एक विजेता थे, इस बार नायक बन गए। ऐसा नायक, जिसने विपक्ष की जातीय गोलबंदी की हवा निकाल दी। अगर कोई मुद्दा रहा तो वह था ‘राष्‍ट्रवाद।’
मोदी में मिला निर्भीक व निष्कलंक नायक
दरअसल, पिछली बार ‘मोदी लहर’ कांग्रेस के कुशासन का प्रतिफल थी। इस बार मोदी मुद्दा बन गए तो वह नेतृत्व की विकल्पहीनता का परिणाम रहा। विपक्ष के रुख-रवैये से आजिज आ चुकी जनता को एक निर्भीक व निष्कलंक नायक की तलाश थी। मोदी में उसे वह सूरत दिखी।
नकारात्‍मक हुई विपक्ष की राजनीति, मर्यादा तार-तार
पिछले पांच साल चुहलबाजियों में मशगूल रहा विपक्ष चुनावी दौर में भी अपने निकम्मेपन से उबर नहीं पाया। ‘मोदी है तो मुमकिन है’ जैसे नारों के उछलते ही विपक्ष की चुनावी रणनीति नकारात्मक होती गई और मोदी हावी होते गए। भाषाई मर्यादाएं तार-तार हुईं।
एनडीए तक सिमटीं विकास की बातें
फिर तो विकास की बातें केवल मोदी और उनके सहयोगियों (एनडीए) तक सिमट कर रह गईं। कुलांचे भरती 21वीं सदी की जनता के लिए जाति और जमात का दायरा छोटा पड़ गया। बंधन टूटे और वोट जुड़ते चले गए।
जनता को यकीन हो गया कि आर्थिक विकास के लिए किसी राष्ट्र का सबल होना बेहद जरूरी है। मोदी यही समझा रहे थे और गफलत में पड़कर विपक्ष उन्हें घसीट रहा था।
हर प्रहार को बना लिया हथियार
अपने ऊपर होने वाले हर प्रहार को मोदी ने चुनावी हथियार बना दिया। जैसे कि ‘चौकीदार चोर है।’ विपक्ष का यह प्रतिकार जनता को गाली से कम नहीं लगी। खामियाजा सामने है।
विपक्ष को कलह से नहीं मिली फुर्सत
विशेष राज्य के दर्जे की मांग और विशेष पैकेज की घोषणा के बीच विधानसभा के पिछले चुनाव में एक जुमला (दवाई, पढ़ाई, कमाई) उछला था। सरकार ने कितना अमल किया, इस बार विपक्ष कैफियत तक तलब नहीं कर पाया। उसे सीटों की छीनाझपटी और उम्मीदवारों के मोल-तोल की कलह से ही फुर्सत नहीं थी।
माेदी ने सहयोगी दलों सेशुरू किया प्रचार
इधर मोदी भाजपा के बजाय सहयोगी जदयू के उम्मीदवार के समर्थन में जनसभा से चुनाव प्रचार की शुरुआत करते हैं। लड़ते-झगड़ते विपक्ष को यह समझ में ही नहीं आया कि गठबंधन की मजबूती के लिए मोदी की यह पहल एक भावनात्मक अपील कर गई। अपनी जीती हुई पांच सीटें सहयोगी के हवाले कर देना महज मजबूरी ही नहीं, बल्कि वोटों का वह पुख्ता बंदोबस्त भी है जिसके लिए चुनावी गठबंधन होता है।
गणित सीधा था, विपक्ष की समझ टेढ़ी
विपक्ष अगर जातीय गोलबंदी की उम्मीद पाले था तो भी बड़ा सीधा गणित था। एक यह कि क्या सीटों के लिए मारामारी करने वालों में वोट ट्रांसफर कराने की क्षमता थी? अगर हां तो विधानसभा के पिछले चुनाव में जीतन राम मांझी मखदुमपुर में आखिर कैसे पराजित हो गए? दूसरा यह कि लोकसभा के पिछले चुनाव में महज 0.12 प्रतिशत वोट पाकर अगर रालोसपा तीन सीटें जीत गई तो वह किसकी बदौलत?
लोकसभा और विधानसभा के पिछले चुनाव से ही स्पष्ट हो गया था कि बिहार में भाजपा, जदयू और राजद के बाद अगर किसी पार्टी का कोई कैडर वोट है तो वह कांग्रेस है। बाद बाकी खम ठोकने वाले चेहरे हैं। वोट ट्रांसफर कराने में समक्ष पार्टी के साथ होने पर ही उनके लिए जीत की गुंजाइश बनती है।
जब 2014 में एनडीए को 35.48 प्रतिशत मत मिले थे तो क्या इस बार जदयू के साथ आ जाने से जीत की गारंटी नहीं थी? पिछली बार जदयू को 16.04 प्रतिशत वोट मिले थे। विधानसभा चुनाव में भी उसका वोट 16.83 प्रतिशत रहा। कोई दो राय नहीं कि ये नीतीश कुमार पर विश्वास करने वाले मतदाता हैं और नीतीश जब नरेंद्र मोदी से उम्मीद पाले हुए हैं तो मतदाता किस बिनाह पर मुकर जाते!
विपक्ष के पास नीति-रणनीति तो दूर, कोई चेहरा तक नहीं रहा। यहां तो नरेंद्र-नीतीश की जोड़ी केंद्र और राज्य में बेहतर समन्वय की उम्मीद बंधाने वाली थी। ऐसे में मोदी के मुद्दा बनते ही एनडीए की जीत पक्की हो गई।
हर हमला कर गया मोदी को मजबूत
अतीत की बात करें तो इससे पहले लोकसभा के दो चुनाव व्यक्ति केंद्रित रहे थे। आपातकाल के बाद 1977 का चुनाव और जनता सरकार के पतन के बाद 1980 का चुनाव। वे दोनों चुनाव इंदिरा गांधी पर ही केंद्रित रहे। वीपी सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को इस श्रेणी में इसलिए नहीं शामिल कर सकते, क्योंकि वे दोनों सरकारें कांग्रेस के कुशासन के विरुद्ध जनमत थीं।
नरेंद्र मोदी का अभ्युदय भी कांग्रेस के कुशासन का परिणाम ही रहा, लेकिन यह पुनर्स्‍थापना उनकी सधी हुई रणनीति का पुरस्कार है। मोदी यह साबित करने में सफल रहे कि वे जो भी सोचते-करते हैं, वह देश के भले के लिए। इसकी वास्तविकता का निर्धारण बेशक इतिहास करेगा, लेकिन प्रेम और युद्ध में हर चीज जायज होती है। चुनाव जब ‘करो या मरो’ की स्थिति वाला हो तो उसमें छल-छद्म से परहेज घातक हो जाता। विपक्ष के ऐसे हर दोषारोपण के बाद मोदी का वजूद कुछ और सशक्त होता गया। वे हर हमले के बाद जीत के कुछ और करीब होते गए।
पार्टी और प्रत्याशी से ऊपर
दिलचस्प यह कि ऐसा एकबारगी नहीं हुआ। पाक अधिकृत कश्मीर में सर्जिकल स्ट्राइक और बालाकोट में एयर स्ट्राइक के बाद से मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ ऊपर चढ़ता गया, फिर भी विपक्ष ने सबक नहीं ली। जनसभाओं में मोदी बड़े ही करीने से इसे अपनी उपलब्धि बताते गए और जनता मानती गई। देश का विकास और राष्ट्रीय सुरक्षा की गारंटी के इस युग्म ने विपक्ष के हथियारों (नोटबंदी, जीएसटी आदि मुद्दे) को भोथरा कर दिया। बिहार में मोदी ने दस जनसभाएं कीं। स्थल चयन में यह ख्याल रखा गया कि उनका संदेश अगल-बगल के क्षेत्रों तक भी पहुंचे। मोदी ने इसका बखूबी फायदा उठाया।
हर सीट पर बना दिया मोदी बनाम अन्य का मुकाबला
विरोधियों ने जितना अधिक शोर मचाया वे उतनी ही तत्परता से यह साबित करते गए कि पूरा विपक्ष एकमात्र मोदी से लड़ रहा है और इस तरह हर सीट पर मोदी बनाम अन्य का मुकाबला हो गया। पार्टी और प्रत्याशी के ऊपर मोदी मुद्दा बन गए। आरक्षण और संविधान की रक्षा की दुहाई देने वालों का सूपड़ा ही साफ हो गया।

Powered by themekiller.com anime4online.com animextoon.com apk4phone.com tengag.com moviekillers.com