बेवजह नहीं है नीति आयोग की चिंता, नहीं सुधरे तो आने वाले दिन और बुरे होंगे

आज जल संकट पूरी दुनिया की गंभीर समस्या है। वर्षाजल संरक्षण को बढ़ावा देकर गिरते भूजल स्तर को रोका व उचित जल-प्रबंधन से सबको शुद्ध पेयजल मुहैया कराया जा सकता है। यही टिकाऊ विकास का आधार हो सकता है। इस मामले में हालात गंभीर हो चुके हैं। नीति आयोग ने अपनी रिपोर्ट में चिंता जाहिर की है कि देश में इस समय तकरीबन साठ करोड़ आबादी पानी की समस्या से जूझ रही है। देश के तीन-चौथाई घरों में पीने का साफ पानी तक मयस्सर नहीं है। आने वाले दिनों में हालात और बिगड़ेंगे। असल में आज हम भीषण जल संकट से जूझ रहे हैं। देश में मानसून बेहतर रहने के बावजूद यह स्थिति आ सकती है इसका अहसास कभी नहीं किया गया। आज देश दुनिया में जल गुणवत्ता के मामले में 122 देशों में 120वें नंबर पर है। पानी के मामले में यह हमारी बदहाली का सबूत है।बेवजह नहीं है नीति आयोग की चिंता, नहीं सुधरे तो आने वाले दिन और बुरे होंगे

मानसून के बावजूद समस्या विकराल 
मानसून के बावजूद यह समस्या विकराल हो रही है। इसका सबसे बड़ा कारण कारगर नीति के अभाव में जल संचय, संरक्षण व प्रबंधन में नाकामी है। इसी का खामियाजा देश कहीं जल संकट तो कहीं भीषण बाढ़ के रूप में भुगत रहा है। एक अध्ययन में कहा गया है कि पानी की मांग और आपूर्ति में अंतर के कारण 2020 तक भारत जल संकट वाला देश बन जायेगा। यह सब परिवार की आय बढ़ने तथा सेवा एवं उद्योग क्षेत्र से योगदान बढ़ने के कारण घरेलू और औद्योगिक क्षेत्र में पानी की मांग में उल्लेखनीय वृद्धि का नतीजा है। यह सच है कि भूजल पानी का महत्वपूर्ण स्नोत है। लेकिन आज इसका दोहन इतना बढ़ गया है कि भूजल के लगातार गिरते स्तर के चलते जल संकट की भीषण समस्या पैदा हो चुकी है। इससे पारिस्थितिकी तंत्र के असंतुलन की भयावह स्थिति पैदा हो गई है।

अत्‍यधिक जल का दोहन 
वैज्ञानिकों व भूगर्भ विशेषज्ञों का मानना है कि यह सब पानी के अत्यधिक दोहन, उसके रिचार्ज न होने के कारण जमीन की नमी खत्म होने, उसमें ज्यादा सूखापन आने, कहीं दूर लगातार हो रही भूगर्भीय हलचल की लहरें यहां तक आने व पानी में जैविक कूड़े से निकली मीथेन व दूसरी गैसों के इकट्ठे होने के कारण जमीन की सतह में अचानक गर्मी बढ़ जाने का परिणाम है। यह भयावह खतरे का संकेत है। पानी का अत्यधिक दोहन होने से जमीन के अंदर के पानी का उत्प्लावन बल कम या खत्म होने पर जमीन धंस जाती है और उसमें दरारें पड़ जाती हैं। इसे उसी स्थिति में रोका जा सकता है जब भूजल के उत्प्लावन बल को बरकरार रखा जाए। भूजल समुचित मात्र में रिचार्ज हो, पानी का दोहन नियंत्रित हो, संरक्षण, भंडारण हो ताकि वह जमीन के अंदर प्रवेश कर सके।

80 फीसद पानी का उपयोग खेती के लिए 
नीति आयोग के अनुसार भूजल का 80 फीसद अधिकाधिक उपयोग कृषि क्षेत्र द्वारा होता है। इसे बढ़ाने में सरकार द्वारा बिजली पर दी जाने वाली सब्सिडी जिम्मेदार है। आयोग की रिपोर्ट में सिफारिश की गई है कि यह सब्सिडी कम की जाए। विश्व बैंक की मानें तो भूजल का सर्वाधिक 92 फीसद और सतही जल का 89 फीसद उपयोग कृषि में होता है। पांच फीसद भूजल व दो फीसद सतही जल उद्योग में, तीन फीसद भूजल व नौ फीसद सतही जल घरेलू उपयोग में लाया जाता है। आजादी के समय देश में प्रति वर्ष प्रति व्यक्ति पानी की उपयोगिता 5,000 क्यूबिक मीटर थी जबकि उस समय आबादी 40 करोड़ थी। वर्ष 2000 में यह 2,000 क्यूबिक मीटर रह गई और आबादी एक अरब पार कर गई। यह आंकड़ा और भयावह होने जा रहा है।

जल संकट के लिए में उद्योग अधिक जिम्‍मेदार 
नीति आयोग भले ही जल संकट की सारी जिम्मेदारी कृषि क्षेत्र पर डाले लेकिन हकीकत में जल संकट गहराने में उद्योगों की अहम भूमिका है। यह सच है कि पानी ही देश के औद्योगिक प्रतिष्ठानों की रीढ़ है। यदि यह खत्म हो गया तो सारा विकास धरा रह जायेगा। सवाल यह उठता है कि जिस देश में भूतल व सतही साधनों के माध्यम से पानी की उपलब्धता 2,300 अरब घनमीटर है और जहां नदियों का जाल बिछा हो, सालाना औसत वर्षा 100 सेमी से भी अधिक होती है, जिससे 4,000 अरब घनमीटर पानी मिलता हो, वहां पानी का अकाल क्यों है? असल यह है कि वर्षा जल में से 47 फीसद यानी 1,869 अरब घन मीटर पानी नदियों में चला जाता है। इसमें से 1,132 अरब घनमीटर पानी उपयोग में लाया जा सकता है लेकिन इसमें से भी 37 फीसद उचित भंडारण-संरक्षण के अभाव में बेकार चला जाता है। इसे बचाकर काफी हद तक पानी की समस्या का हल निकाला जा सकता है।

उचित प्रबंधन ही एकमात्र रास्ता
वर्षाजल संरक्षण और उसका उचित प्रबंधन ही एकमात्र रास्ता है। यह तभी संभव है जबकि जोहड़ों, तालाबों के निर्माण की ओर ध्यान दिया जाए। पुराने तालाबों को पुनर्जीवित किया जाए। सिंचाई हेतु खेतों में पक्की नाली बनाई जाए। बोरिंग- ट्यूबवैल पर भारी कर लगाया जाए ताकि पानी की बरबादी रोकी जा सके। आम जन की जागरुकता- सहभागिता से ही इस संदर्भ में देशव्यापी अभियान चलाया जाना आवश्यक है ताकि भूजल का समुचित विकास व नियमन सुचारू रूप से हो सके। वैसे भूजल का 80 फीसद हिस्से का इस्तेमाल हम कर ही चुके हैं। जिस तेजी से हम उसका दोहन और बर्बादी कर रहे हैं, वह भयावह है। छोटे शहरों में भी सबमर्सिबल पम्पों की भरमार है कारण नगर परिषदें जलापूर्ति करने में असमर्थ हैं। दुख इस बात का है कि हम यह नहीं सोचते कि जब यह नहीं मिलेगा, तब क्या होगा?

हाइ कोर्ट का निर्णय मील का पत्थर
वर्ष 2016 में दिल्ली हाइ कोर्ट ने वर्षा जल संचय को जरूरी बताते हुए इससे संबंधित कानून को चुनौती देने वाली एक याचिका खारिज करते हुए कहा था कि मकान हो या सोसाइटी, सभी के लिए वर्षा जल संचय उपकरण लगाना अनिवार्य होगा। ऐसा नहीं करने वालों से पानी की अधिक कीमत वसूली जाएगी। हाइ कोर्ट ने कहा था कि 500 वर्गमीटर या इससे अधिक बड़े प्लाटों पर बने मकानों पर वर्षा जल संचय उपकरण लगाना जरूरी होगा। दिल्ली हाइ कोर्ट का निर्णय इस दिशा में मील का पत्थर कहा जाएगा। लेकिन खेद है कि क्या ऐसा हुआ। आज भी हालात जस के तस हैं। इस ओर किसी का ध्यान ही नहीं है। इन हालात में जल संकट के निदान की आशा बेमानी प्रतीत होती है।

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