भगवान ऋषभदेव के 10 रहस्य – Shaurya Times | शौर्य टाइम्स http://www.shauryatimes.com Latest Hindi News Portal Thu, 28 Mar 2019 04:57:46 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.8.3 भगवान ऋषभदेव के 10 रहस्य, हर हिन्दू को जानना जरूरी http://www.shauryatimes.com/news/37087 Thu, 28 Mar 2019 04:57:46 +0000 http://www.shauryatimes.com/?p=37087 जैन और हिन्दू दो अलग-अलग धर्म हैं, लेकिन दोनों ही एक ही कुल और खानदान से जन्मे धर्म हैं। भगवान ऋषभदेव स्वायंभुव मनु से 5वीं पीढ़ी में इस क्रम में हुए- स्वायंभुव मनु, प्रियव्रत, अग्नीन्ध्र, नाभि और फिर ऋषभ। जैन धर्म में 24 तीर्थंकर हुए हैं। 24 तीर्थंकरों में से पहले तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव थे। ऋषभदेव को हिन्दू शास्त्रों में वृषभदेव कहा गया है। जानिए उनके बारे में ऐसे 10 रहस्य जिसे हर हिन्दू को भी जानना जरूरी है।
1. भगवान विष्णु के 24 अवतारों का उल्लेख पुराणों में मिलता है। भगवान विष्णु ने ऋषभदेव के रूप में 8वां अवतार लिया था। ऋषभदेव महाराज नाभि और मेरुदेवी के पुत्र थे। दोनों द्वारा किए गए यज्ञ से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु स्वयं प्रकट हुए और उन्होंने महाराज नाभि को वरदान दिया कि मैं ही तुम्हारे यहां पुत्र रूप में जन्म लूंगा। यज्ञ में परम ऋषियों द्वारा प्रसन्न किए जाने पर, हे विष्णुदत्त, परीक्षित स्वयं श्रीभगवान विष्णु महाराज नाभि का प्रिय करने के लिए महारानी मेरुदेवी के गर्भ में आए। उन्होंने इस पवित्र शरीर का अवतार वातरशना श्रमण मुनियों के धर्मों को प्रकट करने की इच्छा से ग्रहण किया- भागवत पुराण।
2. भगवान शिव और ऋषभदेव की वेशभूषा और चरित्र में लगभग समानता है। दोनों ही प्रथम कहे गए हैं अर्थात आदिदेव। दोनों को ही नाथों का नाथ आदिनाथ कहा जाता है। दोनों ही जटाधारी और दिगंबर हैं। दोनों के लिए ‘हर’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। आचार्य जिनसेन ने ‘हर’ शब्द का प्रयोग ऋषभदेव के लिए किया है। दोनों ही कैलाशवासी हैं। ऋषभदेव ने कैलाश पर्वत पर ही तपस्या कर कैवल्य ज्ञान प्राप्त किया था। दोनों के ही दो प्रमुख पुत्र थे। दोनों का ही संबंध नंदी बैल से है। ऋषभदेव का चरण चिन्ह बैल है। शिव, पार्वती के संग हैं तो ऋषभ भी पार्वत्य वृत्ती के हैं। दोनों ही मयूर पिच्छिकाधारी हैं। दोनों की मान्यताओं में फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी और चतुर्दशी का महत्व है। शिव चंद्रांकित है तो ऋषभ भी चंद्र जैसे मुखमंडल से सुशोभित है।
3. आर्य और द्रविड़ में किसी भी प्रकार का फर्क नहीं है, यह डीएनए और पुरातात्विक शोध से सिद्ध हो चुका है। सिंधु घाटी की मूर्तियों में बैल की आकृतियों वाली मूर्ति को भगवान ऋषभनाथ से जोड़कर इसलिए देखा जाता। मोहन जोदड़ो और हड़प्पा से प्राप्त मोहरों में जो मुद्रा अंकित है, वह मथुरा की ऋषभदेव की मूर्ति के समान है व मुद्रा के नीचे ऋषभदेव का सूचक बैल का चिह्न भी मिलता है। मुद्रा के चित्रण को चक्रवर्ती सम्राट भरत से जोड़कर देखा जाता है। इसमें दाईं ओर नग्न कायोत्सर्ग मुद्रा में भगवान ऋषभदेव हैं जिनके शिरोभाग पर एक त्रिशूल है, जो त्रिरत्नत्रय जीवन का प्रतीक है। निकट ही शीश झुकाए उनके ज्येष्ठ पुत्र चक्रवर्ती भरत हैं, जो उष्णीब धारण किए हुए राजसी ठाठ में हैं। भरत के पीछे एक बैल है, जो ऋषभनाथ का चिन्ह है। अधोभाग में 7 प्रधान अमात्य हैं। हालांकि हिन्दू मान्यता अनुसार इस मुद्रा में राजा दक्ष का सिर भगवान शंकर के सामने रखा है और उस सिर के पास वीरभद्र शीश झुकाए बैठे हैं। यह सती के यज्ञ में दाह होने के बाद का चित्रण है।
4. अयोध्या के राजा नाभिराज के पुत्र ऋषभ अपने पिता की मृत्यु के बाद राजसिंहासन पर बैठे। युवा होने पर कच्छ और महाकच्‍छ की 2 बहनों यशस्वती (या नंदा) और सुनंदा से ऋषभनाथ का विवाह हुआ। नंदा ने भरत को जन्म दिया, जो आगे चलकर चक्रवर्ती सम्राट बना। उसी के नाम पर हमारे देश का नाम ‘भारत’ पड़ा। सुनंदा ने बाहुबली को जन्म दिया जिन्होंने घनघोर तप किया और अनेक सिद्धियां प्राप्त कीं। इस प्रकार आदिनाथ ऋषभनाथ 100 पुत्रों और ब्राह्मी तथा सुंदरी नामक 2 पुत्रियों के पिता बने।
5. उन्होंने कृषि, शिल्प, असि (सैन्य शक्ति), मसि (परिश्रम), वाणिज्य और विद्या- इन 6 आजीविका के साधनों की विशेष रूप से व्यवस्था की तथा देश व नगरों एवं वर्ण व जातियों आदि का सुविभाजन किया। इनके 2 पुत्र भरत और बाहुबली तथा 2 पुत्रियां ब्राह्मी और सुंदरी थीं जिन्हें उन्होंने समस्त कलाएं व विद्याएं सिखाईं। इसी कुल में आगे चलकर इक्ष्वाकु हुए और इक्ष्वाकु के कुल में भगवान राम हुए। ऋषभदेव की मानव मनोविज्ञान में गहरी रुचि थी। उन्होंने शारीरिक और मानसिक क्षमताओं के साथ लोगों को श्रम करना सिखाया। इससे पूर्व लोग प्रकृति पर ही निर्भर थे। वृक्ष को ही अपने भोजन और अन्य सुविधाओं का साधन मानते थे और समूह में रहते थे। ऋषभदेव ने पहली दफा कृषि उपज को सिखाया। उन्होंने भाषा का सुव्यवस्थीकरण कर लिखने के उपकरण के साथ संख्याओं का आविष्कार किया। नगरों का निर्माण किया।
6. उन्होंने बर्तन बनाना, स्थापत्य कला, शिल्प, संगीत, नृत्य और आत्मरक्षा के लिए शरीर को मजबूत करने के गुर सिखाए, साथ ही सामाजिक सुरक्षा और दंड संहिता की प्रणाली की स्थापना की। उन्होंने दान और सेवा का महत्व समझाया। जब तक राजा थे उन्होंने गरीब जनता, संन्यासियों और बीमार लोगों का ध्यान रखा। उन्होंने चिकित्सा की खोज में भी लोगों की मदद की। नई-नई विद्याओं को खोजने के प्रति लोगों को प्रोत्साहित किया। भगवान ऋषभदेव ने मानव समाज को सभ्य और संपन्न बनाने में जो योगदान दिया है, उसके महत्व को सभी धर्मों के लोगों को समझने की आवश्यकता है।
7. एक दिन राजसभा में नीलांजना नाम की नर्तकी की नृत्य करते-करते ही मृत्यु हो गई। इस घटना से ऋषभदेव को संसार से वैराग्य हो गया और वे राज्य और समाज की नीति और नियम की शिक्षा देने के बाद राज्य का परित्याग कर तपस्या करने वन चले गए। उनके ज्येष्ठ पु‍त्र भरत राजा हुए और उन्होंने अपने दिग्विजय अभियान द्वारा सर्वप्रथम चक्रवर्ती पद प्राप्त किया। भरत के लघु भ्राता बाहुबली भी विरक्त होकर तपस्या में प्रवृत्त हो गए। राजा भरत के नाम पर ही संपूर्ण जम्बूद्वीप को भारतवर्ष कहा जाने लगा। अंतत: ऋषभदेव के बाद उनके पुत्र भरत ने जहां पिता द्वारा प्रदत्त राजनीति और समाज के विकास और व्यवस्थीकरण के लिए कार्य किया, वहीं उनके दूसरे पुत्र भगवान बाहुबली ने पिता की श्रमण परंपरा को विस्तार दिया।
8. ऋग्वेद में ऋषभदेव की चर्चा वृषभनाथ और कहीं-कहीं वातरशना मुनि के नाम से की गई है। शिव महापुराण में उन्हें शिव के 28 योगावतारों में गिना गया है। अंतत: माना यह जाता है कि ऋषभनाथ से ही श्रमण परंपरा की व्यवस्थित शुरुआत हुई और इन्हीं से सिद्धों, नाथों तथा शैव परंपरा के अन्य मार्गों की शुरुआत भी मानी गई है। इसलिए ऋषभनाथ जितने जैनियों के लिए महत्वपूर्ण हैं, उतने ही हिन्दुओं के लिए भी परम आदरणीय इतिहास पुरुष रहे हैं। हिन्दू और जैन धर्म के इतिहास में यह एक मील का पत्थर है।
9. ऋषभनाथ नग्न रहते थे। अपने कठोर तपश्चर्या द्वारा कैलाश पर्वत क्षेत्र में उन्हें माघ कृष्ण-14 को कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ तथा उन्होंने दक्षिण कर्नाटक तक नाना प्रदेशों में परिभ्रमण किया। वे कुटकाचल पर्वत के वन में नग्न रूप में विचरण करते थे। उन्होंने भ्रमण के दौरान लोगों को धर्म और नीति की शिक्षा दी। उन्होंने अपने जीवनकाल में 4,000 लोगों को दीक्षा दी थी। भिक्षा मांगकर खाने का प्रचलन उन्हीं से शुरू हुआ माना जाता है। इति।
10. जैन मान्यता है कि पूर्णता प्राप्त करने से पूर्व तक तीर्थंकर मौन रहते हैं अत: आदिनाथ को 1 वर्ष तक भूखे रहना पड़ा। इसके बाद वे अपने पौत्र श्रेयांश के राज्य हस्तिनापुर पहुंचे। श्रेयांस ने उन्हें गन्ने का रस भेंट किया जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। वह दिन आज भी ‘अक्षय तृतीया’ के नाम से प्रसिद्ध है। हस्तिनापुर में आज भी जैन धर्मावलंबी इस दिन गन्ने का रस पीकर अपना उपवास तोड़ते हैं। इस प्रकार कठोर तप करके ऋषभनाथ को कैवल्य ज्ञान (भूत, भविष्य और वर्तमान का संपूर्ण ज्ञान) प्राप्त हुआ। वे जिनेन्द्र बन गए। अपनी आयु के 14 दिन शेष रहने पर भगवान ऋषभनाथ हिमालय पर्वत के कैलाश शिखर पर समाधिलीन हो गए और वहीं माघ कृष्ण चतुर्दशी के दिन उन्होंने निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त किया।
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