मेडिकल साइंस ने भले ही तरक्‍की की हो लेकिन वैक्सीन डेवलेप करने के मामले में पिछड़ गए हम – Shaurya Times | शौर्य टाइम्स http://www.shauryatimes.com Latest Hindi News Portal Wed, 29 Jan 2020 06:56:38 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.8.3 मेडिकल साइंस ने भले ही तरक्‍की की हो लेकिन वैक्सीन डेवलेप करने के मामले में पिछड़ गए हम http://www.shauryatimes.com/news/76174 Wed, 29 Jan 2020 06:56:38 +0000 http://www.shauryatimes.com/?p=76174 वैसे तो हमारे देश में बच्चों को कई तरह की बीमारियों से बचाने के लिए टीकाकरण के अहम कार्यक्रम- इंद्रधनुष से गरीब तबके को काफी लाभ हो रहा है, लेकिन कोरोना (वायरल न्यूमोनिया), फ्लू, सार्स, मलेरिया, निपाह आदि कई संक्रामक बीमारियों से बचाव में कारगर टीकों (वैक्सीन) की कम उपलब्धता या उनका नहीं होना एक बड़ा सवाल है। गंभीर बात यह है कि मेडिकल साइंस इतना आगे बढ़ गया है, लेकिन वैक्सीन के मोर्चे पर दुनिया में कम ही तरक्की हुई है। असल में बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियां और उनके कई हितैषी संगठन किसी संक्रामक बीमारी से बचाव में कारगर वैक्सीन के निर्माण में तब तक कोई रुचि नहीं दिखाते, जब तक कि उसमें उन्हें अरबों डॉलर का बिजनेस न दिखे। ऐसा एक उदाहरण चार साल पहले भारत में भी दिखा था।

देश के राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम में जिस पेंटावेलेंट वैक्सीन को शामिल किया था, उसके इस्तेमाल से 2014 के आरंभ में केरल में कुछ बच्चों की मौत हुई थी। इसके बाद अदालतों ने यह सवाल उठाया कि जिन टीकों का उपयोग विकसित देश खुद नहीं करते, उन्हें भारत जैसे विकासशील देशों में क्यों बेचते हैं और इसके लिए षड्यंत्र क्यों करते हैं। इससे यह भी जाहिर हुआ कि हमारे देश में न तो टीकों के मामले में कोई पारदर्शिता थी और न ही कोई वैक्सीन पॉलिसी थी। इस पूरे विवाद ने वैक्सीन क्षेत्र में जरूरी सुधार की ओर भी ध्यान दिलाया। यह आरोप लगा कि जिन टीकों का निर्माण देश में ही हो सकता था, उन्हें लंबे समय तक विदेशों से कई गुना ज्यादा दामों पर मंगाया जाता रहा। यह बात रोटा वायरस के स्वदेश में विकसित टीके से साबित हुई।

देश में एक कंपनी (भारत बायोटेक) ने सरकारी टीकाकरण कार्यक्रम के तहत एड्स की रोकथाम के लिए इस्तेमाल होने वाले इस वैक्सीन का वर्ष 2013 में विकास कर लिया था। इसका महत्वपूर्ण पहलू यह था कि इसकी एक खुराक करीब एक डॉलर में पड़ने लगी, जबकि विदेशी फार्मा कंपनियां इस तरह के टीके की कीमत 300 डॉलर प्रति डोज के हिसाब से वसूल रही थीं। रोटा वायरस के वैक्सीन का देश में ही विकास कर लिए जाने से भारत के वैज्ञानिकों और प्रयोगशालाओं का मनोबल भी बढ़ा और उनमें यह विश्वास पैदा हुआ कि दूसरे देशों से दवा या तकनीक मांगने और उनके फामरूलों पर आंख मूंद कर भरोसा करने के बदले हम खुद भी ऐसे वैक्सीन और दवाएं विकसित कर सकते हैं। यह भी ध्यान रखना होगा कि कुछ संक्रामक बीमारियों के वायरस ऐसे होते हैं जो स्थान विशेष से ताल्लुक रखते हैं, ऐसे में उनसे निपटने में विदेशों में विकसित किए गए वैक्सीन हमारे लिए बहुत कारगर नहीं भी हो सकते हैं।

अच्छा होगा कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मार्केटिंग के तौर-तरीकों में मीनमेख निकालने या पेटेंट नियमों की आड़ में होने वाली बेईमानी का रोना रोने के बजाय हमारा देश रिसर्च में ताकत लगाए और हमारे संगठन एवं प्रयोगशालाएं एक दूसरे के साथ मिलकर काम करें। ऐसी स्थिति में कोई वजह नहीं है कि हम उन बीमारियों के लिए भी दवाएं और वैक्सीन वगैरह तैयार न कर सकें, जिनकी वजह से यहां ज्यादा मौतें होती हैं।

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