परोपकार और उदारता की भावना को जाग्रत करता है ईद-ए-कुर्बान

उल-अज़हा (बकरीद) एक कुर्बानी है। कुर्बानी का मकसद अपने आप के भीतर माल, दौलत व बाल बच्चों की मुहब्बत से बढ़कर अल्लाह पाक की मुहब्बत पैदा करना है। अल्लाह के बंदो की मदद करना है। यही अल्लाह को राजी करने का इनाम भी है। इस दिन खास नबी हजरत इब्राहिम अलैम सलाम (जिन्हें अल्लाह का दोस्त खलील भी कहा जाता है), ने एक बेमिसाल कुर्बानी पेश कर अपने रब का हुक्म बजा लाए थे। इसका अभिप्राय सिर्फ और सिर्फ यही है कि हर बंदे की माल, उसकी जान, उसकी इबादत और जीवन के सभी कर्म अल्लाह के लिए और उसके हुक्म के मुताबिक होने चाहिए। मानवता की सेवा के लिए खुद को पुनः समर्पित करने के साथ ही गरीब और जरूरतमंद लोगों के साथ खुशी बांटना चाहिए। इससे न सिर्फ भाईचारा और आपसी समझ, बल्कि करुणा, परोपकार और उदारता की भावना को मजबूत होती है।

-सुरेश गांधी

हजरत इब्राहिम और उनके परिवार द्वारा दी गई अपनी इच्छाओं की कुर्बानी को याद करने का ही दूसरा नाम है ईद-उल-अज़हा (बकरीद)। बकरीद इस्लाम धर्म का दूसरा सबसे बड़ा त्योहार है। इस्लामिक कैलेंडर के हिसाब से बकरीद का त्योहार 12वें महीने की 10 तारीख को मनाया जाता है। बकरीब का त्योहार रमजान का महीने खत्म होने के 70 दिन के बाद बकरीद का त्योहार मनाया जाता है। इस बार बकरीद बुधवार, 21 जुलाई को मनाया जाएगा। ईद-उल-अजहा यानि कुर्बानी की ईद। गरीबों का ख्याल रखने का दिन। कुर्बानी का मकसद अपने आप के भीतर माल, दौलत व बाल बच्चों की मुहब्बत से बढ़कर अल्लाह पाक के प्रति मुहब्बत पैदा करना है। अल्लाह के बंदो की मदद करना है। यही अल्लाह को राजी करने का इनाम भी है। ऐसे में अल्लाह को खुष करने का बड़ा वक्त और क्या हो सकता है जब कुछ लोग इस वैष्विक महामारी के चलते रोजी-रोजगार छीन जाने से दो जून की रोटी के लिए दर-दर भटक रहे है। अर्थात इस वक्त में परंपरागत कुर्बानी करने की जगह हमें दूसरों की मदद करने का जज्बा पैदा करना होगा। यही जज्बा कुर्बानी का असल भाव पैदा करेगा, जो हजरत इब्राहिम से हमें मिलता है। उनका संदेष है हम हर स्थिति में स्वयं को ढालने और शिकायत करने से बचें। आज महामारी के चलते अनेक परिवारों की आर्थिक स्थिति बिगड़ चुकी है। बेहतर होगा कि हम कुर्बानी में खर्च होने वाले पैसों को इस साल ऐसे परिवारों तक पहुंचाएं। इंसानियत का परिचय देते हुए मदद का जज्बा पैदा करे, ताकि यही जज्बा खुदा तक पहुंचे, यही इस साल सभी की सच्चे मायने में कुर्बानी होगी।

कुर्बानी उस जानवर के ज़िबह करने को कहते हैं, जिसे 10, 11, 12 ज़िलहिज्जा यानि हज के महीने में खुदा के नाम पर ज़िबह किया जाता है। कुरान में लिखा है – हमने तुम्हें हौज-ए-कौसा दिया, तो तुम अपने अल्लाह के लिए नमाज़ पढ़ो और कुर्बानी करो। इस दिन गरीबों का खास ख्याल रखना चाहिए। कोशिश करनी चाहिए कि कुरबानी का गोश्त आपके पास पड़ोस व रिश्तेदारों में उन लोगों तक पहुंच जाये जिनके घर पर कुरबानी नहीं हुई हैं। यह दिन पैगाम देता है कि हमें अल्लाह के डर के साथ जीवन गुजारना चाहिए। यह दिन हमें नेकी के रास्ते पर चलने और बुराई के रास्ते से दूर रहने की शिक्षा देता है। यह दिन हमें बताता है कि इंसान के बीच रंग, नस्ल, जाति, धर्म, देश को लेकर भेदभाव नहीं होना चाहिए। सभी इंसान आपस में भाई भाई की तरह है। नफरत, द्वेष, इष्र्या, छल, कपट नहीं बल्कि आपसी सौहार्द व भाईचारा होना चाहिए। एक-दुसरे की इज्जत, सम्मान व मर्यादा का ध्यान रखना चाहिए। किसी की इज्जत आबरु पर हाथ डालना हराम है। लड़ाई-झगड़ा, फसाद फैलाने वाले अल्लाह के बंदे कभी नहीं हो सकते। सबके साथ अच्छा बर्ताव व व्यावहार करने वाला ही अल्लाह का बंदा हो सकता है।

साहिबे हैसियत पर कुर्बानी वाजिब
हजरत इब्राहीम को ख्याल कि वो अपने बेटे की कुर्बानी दे रहे हैं। इस्लाम में कहा गया है, कि दुनिया में 1 लाख 24 हजार पैगंबर (नबी ) आए। जिन्होंने अल्लाह के हुक्म को माना और इस्लाम की दावत दी। हज़रत मौहम्मद साहब आखिरी पैगंबर थे। उनके बाद नबुव्वत का दौर खत्म हो गया। इन्हीं पैगम्बरों मे से एक पैगंबर हज़रत इब्राहीम दुनिया में आए, जिनकी सुन्नत को बकरीद मनाकर जिंदा रखा जाता है। इस्लाम में मान्यता है कि किसी नबी या पैगंबर का ख्वाब, अल्लाह को संदेश माना जाता है। पैगंबर हजरत इब्राहिम के जमाने में बकरीद की शुरूआत हुई। कहते है एक बार अल्लाह ने हजरत इब्राहिम को सपने में अपनी सबसे प्यारी चीज को कुर्बान करने का हुक्म दिया। हजरत इब्राहिम को 80 साल की उम्र में औलाद नसीब हुई थी। ऐसे में उनके लिए सबसे प्यारे उनके बेटे हजरत ईस्माइल ही थे। अल्लाह का हुक्म पूरा करना उनके लिए एक कड़ा इम्तिहान था। एक तरफ अल्लाह का हुक्म था तो दूसरी तरफ बेटे की मुहब्बत।

ऐसे में उन्होंने अल्लाह के हुक्म पर अमल किया और बेटे को अल्लाह की रजा के लिए कुर्बान करने को राजी हो गए। हजरत इब्राहिम को लगा कि बेटे की कुर्बानी देते समय उनका प्यार कहीं आड़े ना आ जाए। इसलिए उन्होंने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली। इसके बाद हजरत इब्राहिम ने जब बेटे ईस्माइल की गर्दन काटने के लिए छुरी चलाई तो अल्लाह के हुक्म से ईस्माइल अलैहिस्सलाम की जगह एक दुंबा (एक जानवर) पेश कर दिया गया। इब्राहिम अलैहिस्सलाम ने जब आंख से पट्टी हटाई तो उन्होंने अपने बेटे को अपने सामने जिंदा खड़ा पाया। अल्लाह को हजरत इब्राहिम का ये अकीदा इतना पसंद आया कि हर साहिबे हैसियत (जिसकी आर्थिक हालत बकरा या दूसरा जानवर खरीदकर कुर्बान करने की हो) पर कुर्बानी करना वाजिब कर दिया। अल्लाह ने जो पैगाम हजरत इब्राहिम को दिया वो सिर्फ उनकी आजमाइश कर रहे थे। ताकि ये संदेश दिया जा सके कि अल्लाह के फरमान के लिए मुसलमान अपना सब कुछ कुर्बान कर सके। वाजिब का मुकाम फर्ज से ठीक नीचे है। अगर साहिबे हैसियत होते हुए भी किसी शख्स ने कुर्बानी नहीं दी तो वह गुनाहगार है। ऐसे में जरूरी है कि कुर्बानी करे, महंगे और सस्ते जानवरों से इसका कोई संबंध नहीं है।

किस पर कुर्बानी वाजिब
इस्लाम के मुताबिक वह शख्स साहिबे हैसियत है, जिस पर जकात फर्ज है। वह शख्स जिसके पास साढ़े सात तोला सोना या फिर साढ़े 52 तोला चांदी है या फिर उसके हिसाब से पैसे। आज की हिसाब से अगर आपके पास 28 से 30 हजार रुपये हैं तो आप साढ़े 52 तोला चांदी के दायरे में हैं। इसके मुताबिक जिसके पास 30 हजार रुपये के करीब हैं उस पर कुर्बानी वाजिब है। ईद-उल-अजहा के मौके पर कुर्बानी देना जरूरी बन जाता है।

कुर्बानी के तीन हिस्से
कुर्बानी के लिए होने वाले जानवरों पर अलग अलग हिस्से हैं। जहां बड़े जानवरों पर सात हिस्से होते हैं तो वहीं बकरे जैसे छोटे जानवरों पर महज एक हिस्सा होता है। मतलब साफ है कि अगर कोई शख्स भैंस या ऊंट की कुर्बानी कराता है तो उसमें सात लोगों को शामिल किया जा सकता है तो वहीं बकरे की कराता है तो वो सिर्फ एक शख्स के नाम पर होगी। कुर्बानी के गोश्त के तीन हिस्से करने की शरीयत में सलाह है। एक हिस्सा गरीबों में तकसीम किया जाए, दूसरा हिस्सा अपने दोस्त अहबाब के लिए इस्तेमाल किया जाए और तीसरा हिस्सा अपने घर में इस्तेमाल किया जाए। गरीबों में गोश्त बांटना मुफीद है। ईद उल फित्र की तरह ईद उल जुहा में भी जकात देना अनिवार्य होता है ताकि खुशी के इस मौके पर कोई गरीब महरूम ना रह जाए।

हज यात्री शैतान को मारते हैं पत्थर
बकरीद पर कुर्बानी देने के बाद हज पर जाने वाले मुस्लिम हज के आखिरी दिन रमीजमारात जाकर शैतान को पत्थर मारते हैं जिसने हज़रत इब्राहिम को अल्लाह के आदेश से भटकाने की कोशिश की थी। हज की समाप्ति पर इसे मनाया जाता है। इस्लाम में पांच फर्ज माने गये हैं, हज उनमें आखिरी फर्ज माना जाता है। मुसलमानों के लिए जिंदगी में एक बार हज करना जरूरी है। हज होने की खुशी में ईद-उल-जोहा का त्योहार मनाया जाता है। ईद-उल-अजहा के मौके पर मुस्लिम समाज नमाज पढ़ने के साथ-साथ जानवरों की कुर्बानी भी देता है। इस्लाम के अनुसार कुर्बानी करना हजरत इब्राहिम अलैहिस्सलाम की सुन्नत है, जिसे अल्लाह ने मुसलमानों पर वाजिब कर दिया है। दरअसल कुर्बानी का सिलसिला ईद के दिन को मिलाकर तीन दिनों तक चलता है। मुस्लिम समाज अल्लाह की रजा के लिए कुर्बानी करता है। हलाल तरीके से कमाए हुए धन से कुर्बानी जायज मानी जाती है, हराम की कमाई से नहीं। अल्लाह ने खुद फरमाया है कि कुरबानी का गोश्त और खून अल्लाह को नहीं पहुंचता है, बल्कि तुम्हारे दिल का तकवा और अल्लाह का डर अल्लाह ताला तक पहुंचता है।

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