जरूरत पड़ने पर ही परमात्मा को क्यों याद किया जाता है?

गोस्वामी जी विगंत अंक में भी प्रभु के नाम की महिमा गा रहे हैं। ऐसा नहीं कि परमात्मा के पावन नाम का गुनगान चंद शब्दों में सिमट सकता है। ईश्वर के नाम की महिमा लिखने के लिए अगर सारे वनों को भी काट कर, उनकी कलमें बना ली जायें, सातों सागरों के जल की सयाही तैयार कर ली जाये, और संपूर्ण धरा को कागज़ के रुप में प्रयोग किया जाये, उसके बाद भी हम प्रभु के नाम की महिमा को व्यक्त करना चाहें, तो तब भी यह असंभव है।

क्या कोई सागर को अपने मुख में भर सकता है? या आकाश को अपनी मुट्ठी में कैद कर सकता है? नहीं न? बस ऐसे ही भगवान की महिमा को कोई भी कलम से बाँध नहीं सकता। लेकिन तब भी हर भक्त अपने-अपने सामर्थ अनुसार प्रभु नाम की महिमा गान करता है। कारण कि गंगा जी तो पूर्ण रुपेण मुक्ति प्रदायनी हैं ही। लेकिन हम पूरी गंगा जी को तो घर नहीं ला सकते। इसलिए हम बोतल अथवा अन्य पात्र में थोड़ा-सा गंगा जल लाकर ही, अपने घर में छिड़क कर, घर को पावन कर लेते हैं। ठीक ऐसे ही जब हम प्रभु के नाम का बखान अपनी जिह्वा से करते हैं, तो इससे हमारी जिह्वा भी पावन हो जाती है।

गोस्वामी जी कहते हैं, कि आप किसी भी युग में हों, घबराने की आवश्यक्ता नहीं। क्योंकि चारों युगों, तीनों कालों व तीनों लोकों में केवल परमात्मा का नाम ही कल्याण करता है-

‘चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका।

भए नाम जपि जीव बिसोका।।’

लेकिन समाज में एक धारणा है, कि जब हमारा मन ही नहीं करता, कि हम नाम जप करें, तो हम नाम का स्मरण क्यों करें? हमें परमात्मा के नाम की भूख ही नहीं है। जब हमें ऐसी भूख लगेगी, तो हम भी प्रभु का नाम जप लेंगे।

सज्जनों! मान लीजिए, कि यही स्थिती अगर आपके शरीर के संबंध में हो, तो क्या आप तब भी यही सिद्धांत अपनायेंगे। अर्थात हो सकता है, कि आपको कभी खाना खाने की इच्छा ही न होती हो। कारण कि आपको भूख ही नहीं लगती है। ऐसे में क्या आपको प्रसन्न होने की आवश्यकता है, कि बढ़िया है, हमें तो भूख ही नहीं लगती। जिस कारण हमारे भोजन का खर्चा भी अपने आप बच रहा है। निःसंदेह आप प्रसन्न नहीं, अपितु चिंतित हो जायेंगे। आप वैद्य को दिखायेंगे। वैद्य भी कहेगा, कि आपको अगर भूख नहीं लग रही, तो इसका अर्थ है, कि आप बीमार हैं। आप स्वस्थ नहीं हैं। आपको उपचार की आवश्यकता है।

ठीक ऐसे ही, अगर हमें परमात्मा की भक्ति की भूख ही नहीं लगती, तो आपको इससे प्रसन्न होने की आवश्यकता नहीं है। और न ही हाथ पर हाथ रख कर बैठने से काम चलेगा। आप को जैसे शरीर के उपचार के लिए, वैद्य के पास जाना पड़ा। ठीक ऐसे ही आत्मा संबंधी रोगों के उपचार के लिए भी एक सशक्त, अनुभवी व महान वैद्य होते हैं। जिन्हें हम संत व सतगुरु के नाम से जानते हैं। संत आपको सतसंग व हरि कथा सुना कर आपके संस्कारों का पूर्नोत्थान करते हैं। कथा सुन कर आपको प्रभु की भूख लगने लगती है। आप प्रभु के नाम जप की ओर बढ़ने लगते हैं। परिणाम यह होता है, कि आप धीरे-धीरे शांत होने लगते हैं। आपका प्रभाव दिव्य होने लगता है। आपकी वाणी में सत्यता झलकने लगती है। लोगों पर आपकी कही बात का असर होने लगता है। लोग आप पर विश्वास करने लगते हैं। आपको हर परिस्थिति में आनंद की अनुभूति रहती है। लोग क्या कहते हैं, आपको इससे अंतर नहीं पड़ता। आप सदा मुस्कुराते हैं। यही नाम का प्रभाव है।

क्या कोई सागर को अपने मुख में भर सकता है? या आकाश को अपनी मुट्ठी में कैद कर सकता है? नहीं न? बस ऐसे ही भगवान की महिमा को कोई भी कलम से बाँध नहीं सकता। लेकिन तब भी हर भक्त अपने-अपने सामर्थ अनुसार प्रभु नाम की महिमा गान करता है। कारण कि गंगा जी तो पूर्ण रुपेण मुक्ति प्रदायनी हैं ही। लेकिन हम पूरी गंगा जी को तो घर नहीं ला सकते। इसलिए हम बोतल अथवा अन्य पात्र में थोड़ा-सा गंगा जल लाकर ही, अपने घर में छिड़क कर, घर को पावन कर लेते हैं। ठीक ऐसे ही जब हम प्रभु के नाम का बखान अपनी जिह्वा से करते हैं, तो इससे हमारी जिह्वा भी पावन हो जाती है।
लेकिन यहाँ एक प्रश्न और है, जो कि समाज में बहुत प्रचलित है। वह यह, कि हम तो माया में सने लोग हैं। हमें तो कोई नेम धर्म नहीं आता। हमसे तो प्रमात्मा के नाम बोले भी ढंग से नहीं जाते। ऐसे में अगर परमात्मा के नाम की अवमानना हो गई, तो हमें पाप तो नहीं लगेगा?

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