एफआईआर और जब्ती मेमो में अभियुक्त की जाति का उल्लेख करने की प्रथा को तत्काल खत्म किया जाए : इलाहाबाद हाईकोर्ट

प्रयागराज,  इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने शराब तस्करी से जुड़े एक आपराधिक मामले को रद्द करने की याचिका पर सुनवाई करते हुए एफआईआर और जब्ती मेमो में अभियुक्त की जाति का उल्लेख करने की प्रथा को तत्काल समाप्त करने को कहा है। न्यायमूर्ति विनोद दिवाकर ने अपने विस्तृत निर्णय में इस प्रथा को कानूनी भ्रांति और पहचान की प्रोफाइलिंग बताते हुए कहा कि यह संवैधानिक नैतिकता को कमजोर करती है और भारत में संवैधानिक लोकतंत्र के लिए एक गम्भीर चुनौती है।

कोर्ट ने प्रदेश सरकार को अपनी पुलिस दस्तावेजीकरण प्रक्रियाओं में व्यापक बदलाव करने का निर्देश दिया है। कोर्ट ने आधिकारिक फॉर्मों से अभियुक्तों, मुखबिरों और गवाहों की जाति से सम्बंधित सभी कॉलम और प्रविष्टियों को हटाने का आदेश दिया है। कोर्ट ने प्रवीण छेत्री नामक व्यक्ति की याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें उसने अपने खिलाफ शराब तस्करी के मामले में आपराधिक कार्यवाही रद्द करने की मांग की थी।

मामले के तथ्यों के अनुसार प्रवीण छेत्री ने अर्जी दाखिल कर मुकदमे की आपराधिक कार्यवाही रद्द करने की मांग की गई थी। मामला इटावा के जसवंत नगर थाने का है। अभियोजन पक्ष के अनुसार 29 अप्रैल 2023 को पुलिस टीम ने स्कॉर्पियो गाड़ी को रोका और उसमें याची प्रवीण छेत्री सहित तीन व्यक्ति पकड़े। वाहन की तलाशी में 106 बोतल व्हिस्की बरामद हुई, जिस पर केवल हरियाणा में बिक्री के लिए लिखा था। साथ ही फर्जी नंबर प्लेट भी मिलीं। बरामदगी मेमो में अभियुक्तों की जाति माली, पहाड़ी राजपूत और ठाकुर के रूप में दर्ज की गई थी। उनसे मिली जानकारी के आधार पर एक और कार को रोका गया, जिसमें से 254 और बोतल शराब बरामद हुई। दूसरी गाड़ी के मालिक की पहचान पंजाबी पाराशर और ब्राह्मण जातियों के साथ की गई। अभियुक्तों ने हरियाणा से बिहार में शराब की तस्करी करने और प्रवीण क्षेत्री को अपना ‘गैंग लीडर बताने की बात कबूल की।

उच्च न्यायालय ने इस मामले की एफआईआर और ज़ब्ती मेमो में अभियुक्त की जाति का उल्लेख करने पर कड़ी आपत्ति जताई। इस प्रथा के लिए डीजीपी के तर्कों की आलोचना की और जाति-आधारित पहचान से होने वाले मनोवैज्ञानिक व सामाजिक नुकसान पर दूरगामी टिप्पणियां की। कोर्ट ने आधार कार्ड, फिंगरप्रिंट और मोबाइल कैमरों जैसे आधुनिक उपकरणों के युग में पहचान के लिए जाति पर निर्भरता को कानूनी भ्रांति करार दिया। इस तर्क पर कि फॉर्म केवल केंद्र सरकार द्वारा संशोधित किए जा सकते हैं, कोर्ट ने इसे कानूनी रूप से अस्थिर माना क्योंकि संविधान के तहत पुलिसिंग एक राज्य का विषय है, जो राज्य को जातिविहीन समाज के संवैधानिक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए फॉर्म में संशोधन करने का अधिकार देता है।

अदालत ने डीजीपी की तीखी आलोचना करते हुए कहा कि उन्होंने खुद को एक ऐसे पुलिस कर्मी की तरह संचालित किया जो संवैधानिक नैतिकता से अलग-थलग हो, और अंततः वर्दी में एक नौकरशाह के रूप में सेवानिवृत्त हो गए। कोर्ट ने इसे वास्तव में दुर्भाग्यपूर्ण पाया कि अधिकारी के कार्यों का बचाव किया गया, बजाय इसके कि विभागीय जांच और संवैधानिक मूल्यों पर संवेदीकरण किया जाता। कोर्ट ने टिप्पणी की कि 2047 तक एक विकसित राष्ट्र के दृष्टिकोण को प्राप्त करने के लिए जाति का विनाश हमारे राष्ट्रीय एजेंडे का एक केंद्रीय हिस्सा होना चाहिए।

उच्च न्यायालय ने निर्देश दिया कि अपराध विवरण फॉर्म, गिरफ्तारी/कोर्ट सरेंडर मेमो और पुलिस अंतिम रिपोर्ट सहित सभी पुलिस फॉर्मों से जाति या जनजाति से संबंधित सभी प्रविष्टियां हटा दी जाएं। सभी संबंधित पुलिस फॉर्मों में पिता/पति के नाम के साथ मां का नाम भी जोड़ा जाए। सभी पुलिस थानों में नोटिस बोर्ड पर अभियुक्तों के नाम के सामने जाति का कॉलम तत्काल प्रभाव से मिटा दिया जाए। जाति का महिमामंडन करने वाले या क्षेत्रों को जातिगत क्षेत्र या संपत्ति घोषित करने वाले साइनबोर्ड तुरंत हटाए जाना चाहिए और भविष्य में उनकी पुनर्स्थापना को रोकने के लिए एक औपचारिक विनियमन बनाया जाना चाहिए।

अदालत ने केंद्र सरकार से भी कहा कि केंद्रीय मोटर वाहन नियमों में संशोधन कर सभी वाहनों पर जाति-आधारित नारों और पहचानकर्ताओं पर स्पष्ट रूप से प्रतिबंध लगाया जाए। सोशल मीडिया पर जाति का महिमामंडन करने वाली और घृणा फैलाने वाली सामग्री के खिलाफ कार्रवाई के लिए आईटी नियमों को मजबूत किया जाए। साथ ही नागरिकों के लिए उल्लंघनों की रिपोर्ट करने के लिए एक निगरानी तंत्र स्थापित किया जाए।

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