वन्दे मातरम् की गूंज के 150 वर्ष

डॉ शिवानी कटारा:  भारत का राष्ट्रीय गीत ‘वन्दे मातरम्’ इस वर्ष अपनी रचना के 150वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है। 7 नवम्बर 2025 का यह दिन केवल एक गीत की वर्षगांठ नहीं, बल्कि उस राष्ट्रीय चेतना का उत्सव है जिसने सोए हुए भारत को जगाया था। यह गीत शब्दों से परे एक भावना है—भक्ति और स्वतंत्रता का संगम, जिसने पराधीन भारत में आशा का दीप प्रज्वलित किया। ‘वन्दे मातरम्’ वह अमर स्वर है जो साहित्य की सीमा लांघकर भारत की चेतना बन गया, जिसने जन-जन के हृदय में यह विश्वास जगाया कि मातृभूमि ही सर्वोच्च आराध्या है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस अवसर पर अपने ‘मन की बात’ संबोधन में कहा—“वन्दे मातरम्… इसमें कितनी भावनाएँ, कितनी ऊर्जा समाई है। यह हमें माँ भारती के मातृत्व का अनुभव कराता है। यह हमारे हृदय की तरंगों का उद्गार है, एक ऐसा मंत्र जो 140 करोड़ भारतीयों को एकता की ऊर्जा से जोड़ता है।” उन्होंने देशवासियों से #VandeMataram150 अभियान के माध्यम से इसे जन-जन का उत्सव बनाने का आह्वान किया।

‘वन्दे मातरम्’ दो संस्कृत शब्दों से मिलकर बना है। ‘वन्दे’ शब्द संस्कृत धातु ‘वन्द्’ से निकला है, । यह धातु ऋग्वेद मंडल 10, सूक्त 151, मन्त्र 4 में मिलती है— “देवा वन्दे मनुष्याः।” अर्थात् मनुष्य देवताओं की वन्दना करते हैं। यहाँ “वन्दे” का अर्थ श्रद्धा और प्रणाम है, “मातरम्” का अर्थ माँ अर्थात भारत माता। अर्थात—“हे माँ, तुझे प्रणाम,” यह केवल व्याकरणिक नहीं, बल्कि एक गहरी भावनात्मक पुकार है।

1870 के दशक में बंगाल के महान साहित्यकार बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने ‘वन्दे मातरम्’ की रचना की और बाद में इसे अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘आनंदमठ’ (1882) में स्थान दिया। यह कृति संन्यासी विद्रोह की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित थी, जिसने 18वीं सदी में नवाब और ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध प्रतिरोध का स्वर उठाया था। बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने भारत को माँ के रूप में चित्रित किया—एक ऐसी देवी जो “सुजलाम् सुफलाम्” है, नदियों से सिंचित और फसलों से सम्पन्न। उस समय ब्रिटिश शासन ‘God Save Our Queen’ को राष्ट्रगान बनाना चाहता था, पर भारतीयों ने इसका तीव्र विरोध किया। आत्मसम्मान और राष्ट्रीय पहचान की तलाश में ‘वन्दे मातरम्’ भारतीय अस्मिता का प्रतीक बन गया।

इस गीत की पहली धुन जदुनाथ भट्टाचार्य ने तैयार की, जो भारतीय शास्त्रीय संगीत के राग ‘देश’ पर आधारित थी। बाद में इसके आधुनिक संगीत रूप का श्रेय पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर को दिया गया, जो गंधर्व महाविद्यालय और अखिल भारतीय गंधर्व महाविद्यालय मंडल के संस्थापक थे। 1896 में रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन (बीटन स्क्वायर) में वन्दे मातरम्’ गाया, जहाँ यह राष्ट्रभावना का प्रतीक बन गया। तमिल कवि सुब्रमण्य भारती ने इसे तमिल में गाया, और पंतलु ने इसे तेलुगु में रूपांतरित किया। 1901 में दक्षिणा चरण सेन ने इसे पियानो की धुन पर प्रस्तुत किया, और 1905 में सरला देवी चौधरानी के गायन ने इसे भारत की स्वतंत्र आत्मा का अमर स्वर बना दिया।

लाला लाजपत राय ने लाहौर से ‘वन्दे मातरम्’ नामक पत्रिका निकाली, जो राष्ट्रवादी विचारधारा का प्रमुख माध्यम बनी। इसी समय भारतीय सिनेमा के अग्रदूत हीरालाल सेन ने 1905 में भारत की पहली राजनीतिक फिल्म बनाई, जो “वन्दे मातरम्” के उद्घोष के साथ समाप्त होती थी। बंगाल विभाजन के विरोध में जब आंदोलन प्रबल हुआ, तब यह गीत सड़कों, सभाओं और जेलों में प्रतिरोध का स्वर बन गया। 14 अप्रैल 1906 को बरिसाल कांग्रेस अधिवेशन में जब लॉर्ड कर्ज़न का पुतला जलाया गया, तो “वन्दे मातरम्” के नारों से आसमान गुंज उठा। अदालतों में भी जब क्रांतिकारियों पर मुकदमे चले, वे जजों के सामने यही नारा लगाते थे। ब्रिटिश सरकार ने इसे देशद्रोह घोषित किया। खुदीराम बोस और मातंगिनी हाजरा के अंतिम शब्द भी थे—“वन्दे मातरम्!” 1906 में अवनीन्द्रनाथ ठाकुर ने “भारत माता” का चित्र बनाया, जिसे देखकर सिस्टर निवेदिता ने कहा—“यह माँ भारती की आत्मा का साकार रूप है।” यह चित्र और ‘वन्दे मातरम्’ दोनों उस युग की एक ही भावना के दृश्य और श्रव्य रूप बन गए—माँ भारती का उदीपन-गीत, जिसने राष्ट्र की निद्रा तोड़ दी।

1907 में भीकाजी कामा ने जर्मनी के स्टटगार्ट में भारत का पहला तिरंगा ध्वज बनाया, जिसकी मध्य पट्टी पर “वन्दे मातरम्” अंकित था। यह ध्वज स्वतंत्रता का प्रतीक बनकर पहली बार अंतरराष्ट्रीय मंच पर लहराया। श्री अरविन्द घोष ने इसका अंग्रेज़ी अनुवाद “Mother, I bow to thee” शीर्षक से किया, जो 20 नवम्बर 1909 को उनके साप्ताहिक पत्र कर्मयोगिन में प्रकाशित हुआ। इसकी पहली रिकॉर्डिंग 1907 की मानी जाती है। 1952 की फिल्म ‘आनंदमठ’ में हेमंत कुमार ने इसका संगीत तैयार किया, जिसे लता मंगेशकर और के.एस. चित्रा ने स्वर दिया। पंडित रवि शंकर द्वारा ऑल इंडिया रेडियो के संस्करण की धुन रची गई। 2002 में बीबीसी वर्ल्ड सर्विस के वैश्विक मतदान में ‘वन्दे मातरम्’ को दुनिया के दस सर्वश्रेष्ठ गीतों में दूसरा स्थान मिला, जिससे यह भारत के गौरव और सांस्कृतिक आत्मा का प्रतीक बन गया।

‘वन्दे मातरम्’ की लोकप्रियता जितनी तेज़ी से बढ़ी, उतना ही विरोध भी उभरा। 1937 में कांग्रेस की समिति, जिसमें मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और अन्य मुखय नेता थे, ने तय किया कि गीत के केवल पहले दो पदों को राष्ट्रीय गीत के रूप में अपनाया जाएगा। परंतु मुहम्मद अली जिन्ना ने इसका तीव्र विरोध किया। क़ायदे-आज़म पेपर्स (1938) के अनुसार, जिन्ना ने इसे “मूर्तिपूजक” बताया और कहा कि “भारत को देवी के रूप में चित्रित करने वाला यह गीत मुसलमानों के लिए अस्वीकार्य है।” इसके बावजूद, समिति ने साम्प्रदायिक सौहार्द हेतु दो पदों को ही मान्य किया।

24 जनवरी 1950 को डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने संविधान सभा में घोषणा की—“वन्दे मातरम् जिसने स्वतंत्रता संग्राम में ऐतिहासिक भूमिका निभाई, उसे ‘जन गण मन’ के समान सम्मान मिलेगा।” स्वतंत्रता के बाद भी इसकी प्रासंगिकता ही नहीं बनी रही, बल्कि और अधिक गहरी होती गई। आरिफ मोहम्मद ख़ान ने इसका उर्दू अनुवाद किया। 2019 में दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका दाखिल हुई जिसमें इसे ‘जन गण मन’ के समान कानूनी दर्जा देने की मांग की गई। 2022 में केंद्र ने दोहराया कि दोनों गीत समान रूप से पूजनीय हैं। 2017 में मद्रास उच्च न्यायालय ने इसके नियमित गायन का निर्देश दिया। सुप्रीम कोर्ट (2016) ने कहा—“राष्ट्रगीत और राष्ट्रगान का सम्मान केवल औपचारिक नहीं, आत्मिक श्रद्धा का प्रतीक होना चाहिए।”

राष्ट्रगीत ‘वन्दे मातरम्’ भारतीय चेतना के रूप में इस प्रकार रचा-बसा है कि इसके स्वर हर आंदोलन और हर संघर्ष में गूंज उठे। यह केवल इतिहास का पन्ना नहीं, बल्कि भारत की जीवित भावना है—एक ऐसा स्वर जिसने प्रतिरोध को एकता में, और भावों को जागरण में परिवर्तित किया। आज, जब भारत का युवा डिजिटल युग में नई पहचान गढ़ रहा है, यह गीत उसे अपनी जड़ों से जोड़ता है, यह स्मरण कराता है कि शब्दों की भी क्रांति होती है—और वह क्रांति है “वन्दे मातरम्।” यह भारत की आत्मा का अमर स्वर है—सुजलाम् सुफलाम्, मलयजशीतलाम्।

(लेखिका दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स से पीएच.डी. हैं और सामाजिक कार्यों में सक्रिय हैं)

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