जल संरक्षण पर प्रधानमंत्री की चिंता

जल संरक्षण पर प्रधानमंत्री की चिंता

डॉ. रमेश ठाकुर: रविवार को रेडियो पर अपने कार्यक्रम ‘मन की बात’ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बारिश के पानी की बर्बादी पर चिंता जताते हुए सभी को जल संरक्षण के प्रति जागरूक होने की जरूरत बतायी। दरअसल यह ऐसा मुद्दा है जिस पर बात करने से नहीं, एक्शन लेने से बात बनेगी। जल संरक्षण नहीं करने के पीछे कुछ बुनियादी कारण हैं। जल भंडारण के मुकम्मल उपाय नहीं होने से हजारों-लाखों मिलीमीटर मानसून का पानी हर वर्ष सड़कों और नालों में बह जाता है। शायद इस मौसमी बारिश की अहमियत को समझने में भूल करते हैं।

मानसून वर्षा के संचयन के लिए नई जल संग्रहण प्रणाली को लाना होगा और उसे तत्काल प्रभाव से लागू करने के अलावा सामाजिक स्तर पर अलख भी जगानी होगी। क्योंकि गिरते भूजल स्तर पर विराम लगाने के लिए मानसून का पानी ही एकमात्र विकल्प है। देश-प्रदेशों में हमेशा चुनावी मौसम बना रहता है। लेकिन दुख इस बात का है वर्षा जल संचयन का मुद्दा चुनावों का हिस्सा नहीं बन पाता। इसे राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी कहें या फिर सिस्टम की लापरवाही?

वर्षा जल संग्रहण की जरूरतों को ठीक से जानते हुए भी हम पानी को संग्रह नहीं कर पाते, बर्बाद कर देते हैं, ये बेहद चिंता का विषय है। इसके दुष्परिणाम अभी नहीं, कुछ समय बाद दिखाई देंगे। दिल्ली जैसे छोटे उप-प्रदेश में हमेशा पानी की किल्लत रहती है। जबकि, वहां औसतन बारिश के मौसम में 534 मिलीमीटर बारिश होती है और पूरे वर्ष 615 मिली के आसपास। मानसून का 534 मिली पानी अगर संग्रह कर लिया जाए, तो दिल्ली कभी बेपानी न रहे।

एक जमाना था जब गांव-देहातों में बारिश के पानी के भंडारण के लिए पारंपरिक तकनीकों का उपयोग किया जाता था। घरों के आसपास जैसे पोखर, तालाब, कुएं, नदी-नाले व बांध होते थे। पर, अब सब नदारद हैं, उनका नामोनिशान मिट चुका है। किन्हीं जगहों पर एकाध विरले ही दिखाई देंगे। उन जगहों को पाटकर लोग अब खेतीबाड़ी करने लगे हैं। गांव और तालाबों की संस्कृति से हिंदुस्तान की पहचान रही है। लेकिन ये प्राचीन संस्कृति अब विलुप्त है। गांवों से तकरीबन-तकरीबन तालाब खत्म हो चुके हैं। लोग भी वर्षा जल संग्रहण के लिए पहले जैसे गंभीर नहीं दिखते। देश में वर्षा जल प्रणाली पुरानी है, उसे आधुनिक बनाए जाने की जरूरत है। बल्कि नए सिरे से संरचना की जाए तो ही बेहतर रहेगा। पानी की शॉर्टेज पर ही हुकूमतों और आमजनों को पानी बचाने की याद आती है। राजनीति करने और फंड डकारने के लिए वैसे तो दूसरे क्षेत्रों में गैर-सरकारी संस्थाओं की कमी नहीं है, लेकिन जल संचयन क्षेत्र में मात्र कुछ ही संस्थाएं सक्रिय हैं। इस पर्यावरण क्षेत्र में सक्रियता निभाने के लिए ईमानदार, निस्वार्थ और सच्चा हितैषी होना जरूरी है।

समूचे हिंदुस्तान में इस वक्त मानसून ने दस्तक दी हुई है। क्या मैदानी, क्या पहाड़ी हर जगह इस बार अच्छी बारिश हो रही है। लेकिन जल संचयन के उचित प्रबंध नहीं होने से कई मिलियन क्यूसेक मीटर पानी बेकार जा रहा है। भूजल स्तर जिस तेजी से नीचे खिसक रहा है, उसकी मुकम्मल भरपाई मात्र वर्षा जल से ही हो सकती है। पर, सिस्टम की सुस्ती जल संग्रहण में बाधा बनी हुई है, जितने इंतजाम होने चाहिए, उतने हुए नहीं। जल संग्रहण के ज्यादातर काम कागजों में होते हैं। भूजल की स्थिति को सुधारने की तमाम कवायद और वादे सिर्फ कागजों तक सीमित है। हर वर्ष का सावन-भादो में बरसने वाला बारिश का पानी सड़कों, नालों व गड्डों में बहकर बर्बाद हो जाता है। सरकारें आती-जाती हैं, प्रत्येक हुकूमतों में मानसून के पानी को संजोने, भूजल रिचार्ज करने और री-साइकिल करने की योजनाएं बनाई जाती है, पर रिजल्ट शून्य रहता है। जल भंडारण के लिए हम सालों से सुनते आए हैं कि वर्षा जल के लिए देशभर में विश्वस्तरीय ड्रेनेज सिस्टम तैयार किए जाएंगे लेकिन ये वादे उस वक्त बरसाती मेंढक जैसे साबित होते हैं जब बारिश का लाखों मिलीमिटर पानी सड़कों पर बह जाता है।

दशक पूर्व कई राज्यों में सूखा पड़ने के बाद वर्षा जल संरक्षण के लिए जोरदार अलख जगी थी। तब हिंदुस्तान भर में कई राज्यों में जलाशय बनाए गए, जिनमें उत्तर प्रदेश का माताटीला बांध व रिहन्द, मध्य प्रदेश का गांधी सागर व तवा, झारखंड का तेनूघाट, मेथन, पंचेतहित व कोनार, महाराष्ट्र के कोयना, ईसापुर, येलदरी व ऊपरी तापी, राजस्थान का राणा प्रताप सागर, कर्नाटक का वाणी विलास सागर, उड़ीसा का रेंगाली, तमिलनाडु का शोलायार, त्रिपुरा का गुमटी और पश्चिम बंगाल का मयुराक्षी व कंग्साबती जलाशय प्रमुख थे। लेकिन मौजूदा समय में ये सभी विशालकाय जलाशय बदहाल स्थिति में हैं। जल भंडारण की स्थिति पर निगरानी रखने वाली केंद्रीय जल आयोग की रिपोर्ट बताती है कि एकाध जलाशयों को छोड़कर बाकी सभी मरणासन्न स्थिति में पहुंच गए हैं।

पूर्ववर्ती सरकारों ने इन जलाशयों से बिजली बनाने की भी योजना बनाई थी। वह भी कागजों में ही सिमट गई। इनमें चार जलाशय ऐसे हैं जो अब भी विद्युत उत्पादन कर रहे हैं। इन जलाशयों को स्थापित करने के मात्र दो मकसद थे। अव्वल, वर्षा जल का संचयन करना, वहीं दूसरा, जलसंकट की समस्याओं से मुकाबला करना। इनका निर्माण सिंचाई, विद्युत और पेयजल की सुविधा के लिए हजारों एकड़ वन और सैंकड़ों बस्तियों को उजाड़ा गया। लेकिन सिस्टम की सुस्ती और लापरवाही के चलते सभी बेपानी होते जा रहे हैं। केंद्रीय जल आयोग के हालिया आंकड़े भी खतरों के संकेत देते हैं। जल प्रबंधन और भूल चुके पारंपरिक उपायों को हमें अपनाने की जरूरत है। जल भंडारण के लिए जन जागरण और बड़े स्तर पर प्रचार-प्रसार की आवश्यकता है। इस काम में न सिर्फ सरकारों को, बल्कि हम सबको श्रम आहुति देनी पड़ेगी, क्योंकि जल है तो कल है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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