एम-वाई के 22 बरस के रिश्तों में दरारें क्यों !

मुसलमानों की मजबूरी का नाम भाजपा से दोस्ती

नवेद शिकोह । एक क़ौम और एक पार्टी दोनों के प्यार और भरोसे का लम्बा सिलसिला चला। मुसलमानों से मोहब्बत के सफर ने समाजवादी पार्टी की चार हुकुमतों को जन्म दिया। अब मौजूदा हालात इनके बीच विलेन बन कर आ गए हैं। दोनों के बीच तनाव बढ़ रहा है। पार्टी के मुस्लिम सांसद,विधायक, पदाधिकारी, कार्यकर्ता राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव से नाराज़ दिख रहे हैं और लाखों मुस्लिम वोटर भी ख़फा-ख़फा से नज़र आ रहे हैं।
शंकाएं जताई जा रही हैं कि क्या सपा और मुसलमानों के बीच भरोसे का पुराना रिश्ता टूट जाएगा ! तलाक होगी या अखिलेश रूठों को मनाने में कामयाब हो जाएंगे !
या फिर लोकसभा चुनाव में मुसलमान कांग्रेस का साथ देंगे ! शून्य की तरफ बढ़ रही कांग्रेस के साथ आने से क्या फायदा। मरता क्या न करता, सत्तानशीं भाजपा से दुश्मनीं क्यों ले ! दूरियां मिटा कर भाजपा के साथ क्यों न आ जाएं !
इन दिनों मुस्लिम समाज कुछ ऐसे ही उधेड़बुन में पड़ा है। जिस क़ौम के लोग समाजवादी पार्टी का समर्थन और मोहब्बत का इज़हार करने में थकती नहीं थी आज वही सपा पर अनदेखी का अल्ज़ाम लगा रहे हैं।
बदली परिस्थितियों पर सवाल ये भी उठ रहे हैं कि यूपी विधानसभा चुनावी नतीजों से पहले जो पार्टी इतनी दुलारी थी आज इसपर एकाएकी बेवफाई के इल्ज़ाम क्यों ?
पार्टी के सबसे बड़े मुस्लिम चेहरे आज़म ख़ान, उनके पुत्र अब्दुल्ला आज़म सहित पूरा आज़म परिवार नाराज़ हैं। सांसद टी. हसन, शफीकुर्रहमान बर्क, अबु आसिम आज़मी सहित तमाम विधायक और पदाधिकारी रूठे-रूठे से नज़र आ रहे हैं। रामपुर में आज़म खान के मीडिया प्रभारी ने अखिलेश यादव पर जो सख्त आरोप लगाए यदि उन आरोपों से आज़म परिवार सहमत नहीं होता तो संगीन अल्ज़ाम लगाने वाले के खिलाफ अब्दुल्ला आज़म अनुशासन हीनता का कार्रवाई करते। इसलिए ये माना जा रहा है कि आज़म खान की लिखी हुई स्क्रिप्ट को ही उनके मीडिया प्रभारी ने पेश किया। दलीलें और भी हैं। वरिष्ठ सपा नेता, पुर्व मंत्री, और लखनऊ मध्य के विधायक रविदास मेहरोत्रा के नेतृत्व में सपा का डेलीगेशन आजम खान से मिलने जेल पंहुचा तो आज़म साहब ने सेहत ठीक न होने का बहाना कर मिलने से इंकार कर दिया। लेकिन दूसरे दिन कांग्रेस के आचार्य प्रमोद कृष्णम से आजम मिले, उन्हें खजूरें खिलायीं और जेल में अपनी तकलीफें बयां कीं। इससे पहले शिवपाल यादव ने सीतापुर जेल जाकर आजम ख़ान से लम्बी मुलाकात की थी। औरअपने भ्राता मुलायम सिंह पर शिवपाल ने जीवन में पहली बार आरोप लगाते हुए कहा कि नेता जी (मुलायम सिंह ) और अखिलेश ने आजम साहब की रिहाई के लिए प्रयास नहीं किए।
रालोद अध्यक्ष जयंत चौधरी भी रामपुर आए और आजम खान के घर पहुंचकर अब्दुल्ला आज़म से मिले। लम्बे समय से आज़म खान की रिहाई न होने और उनकी खराब सेहत को लेकर जयंत ने फ़िक्र जाहिर की थी। ये सारी गतिविधियां सपा और सपा गंठबंधन के बिखरने के संकेत दे रही हैं।
यही नहीं सपा के मुस्लिम सांसद, विधायक, पदाधिकारी, कार्यकर्ता और वोटर-समर्थक भी अपनी पार्टी से नाराज़गी ज़ाहिर कर रहे हैं।

आइए टूटते हुए रिश्तों के वुजुहात (कई कारणों) को तलाशने की कोशिश करें –

सबसे बड़ी वजह-
इतिहास गवाह है कि अधिकांश मुसलमान हर चुनाव में भाजपा के खिलाफ वोट करता रहा है। शायद ये पहला मौका था जब यूपी विधानसभा चुनाव में मुस्लिम समाज ने बिना बिखरे, बिना बंटे, एकजुट होकर होकर भाजपा के खिलाफ और सपा के समर्थन में खूब ज्यादा से ज्यादा वोट करके अपनी ही पिछली रवायतों का रिकार्ड तोड़ दिया। अकलियत ने चुनाव से पहले बसपा, एआईएमआईएम और कांग्रेस को नकार कर ये मंशा ज़ाहिर की कि जिस दल का गैर मुस्लिम वोट बैंक, जनसमर्थन, संगठन होगा और जो खूब मेहनत से चुनाव लड़कर करीब बीस फीसद ग़ैर मुस्लिम वोट लाने की स्थिति में होगा उसे ही मुस्लिम समाज बीस फीसद बल्क वोट देगा। और इस अप्रत्यक्ष शर्त के साथ सपा के समर्थन का फैसला किया गया था। इस समीकरण में सपा 5-7 प्रतिशत वोटों से पिछड़ गई और भाजपा बहुमत के साथ जीत गईं।
लेकिन भाजपा को मुस्लिम समाज का ये फार्मूला खतरनाक लगने लगा। योगी सरकार 2.0 ने सख्त एक्शन के साथ शुरुआत की। किसी भी प्रकार की अनियमितताओं को लेकर हो रही कार्रवाइयों/एफ आई आर बुलडोजर की चपेट में आने वालों में मुस्लिम समाज की संख्या अधिक थी। शायद अल्पसंख्यक समाज को लगने लगा कि सपा से दोस्ती तोड़ने से भाजपा का प्रतिशोध पिघल सकता है !
हो सकता है कि आज़म खान को भी यही लगा हो कि सपा से नाराजगी उन्हें जेल से निजात दिला सकती है। राजनीतिक पंडितों की मानें तो बुल्डोजर और कार्यवाहियों का डर बीस फीसद बल्क वोट बिखरने की पालिटिकल चाल कामयाबी की दिशा पर चल निकली है।

वर्तमान ने फेल किए अतीत के समीकरण
मुस्लिम समाज की एक्सट्रा केयर (जिसे तुष्टिकरण भी कह सकते हैं।) की राजनीतिक रणनीति के साथ तत्कालीन सपा अध्यक्ष ने मुस्लिम प्लस यादव यानी एम वाई के फार्मूले के साथ कई बार सत्ता हासिल की थी। उस जमाने में बसपा, भाजपा, कांग्रेस और सपा का चतुर्मुखी मुकाबला होता था इसलिए पच्चीस से तीस प्रतिशत वोट में भी जीत हो जाती थी। मुस्लिम-यादव और थोड़े बहुत गैर यादव पिछड़ी जातियों के वोट से सपा जीत जाती थी। अब भाजपा के भारी जनसमर्थन के दौर में कांग्रेस और बसपा का वोट भी भाजपा के भरोसे से जुड़ चुका है, ऐसे में सपा को मुस्लिम बल्क वोट के बाद भी एम वाई के पच्चीस फीसद वोट से जीतना नामुमकिन है। 2022 के विधानसभा चुनाव में पिछड़ी जातियों के छोटे दलों के साथ मजबूत गठबंधन और एन्टीइंकम्बेंसी का अकेला फायदा उठाकर भी बायपोलर चुनाव में सपा गंठबंधन 36% से अधिक वोट नहीं हासिल कर सका। जबकि भाजपा करीब 42% का जनसमर्थन हासिल कर विजयी हो गई।
ऐसे में मुस्लिम समाज को लगने लगा है कि आगे भी सपा बीस फीसद गैर मुस्लिम वोट हासिल नहीं कर सकती है। जिसकी वजह अखिलेश यादव का अड़ियल स्वभाव भी है। वो अपने चाचा और परिवार के अन्य सदस्यों को भी साथ नहीं जोड़ पा रहे जिसके कारण यादव वोट में भी सेंध लगने वाली है।
इस बात पर पहले ही ग़ौर किया जा रहा था कि अखिलेश यादव गैर मुस्लिम वोटर का विश्वास जीतने के लिए सपा के सबसे हमदर्द मुस्लिम समाज को नजरंदाज कर रहे थे। चुनावी मंच पर मुस्लिम समस्याओं का जिक्र नहीं किया। घोषणा पत्र में भी इस समाज के लिए कोई घोषणा नहीं हुई। मुस्लिम सपाइयों को मंच पर लाने से परहेज किया गया। ऐसे में कद्दावर सपा नेता अबु आसिम आजमी पूरी चुनावी सभाओं से गायब रहे।
मुस्लिम समाज इस खुशफहमी में ये सब बर्दाश्त करता रहा कि सपा गठबंधन भाजपा को हराने में शायद कामयाब हो जाए। सपा हार गई और इसके बाद भी अखिलेश यादव ने चौथी हार (दो विधानसभा चुनाव और दो लोकसभा चुनाव) से भी कोई सीख नहीं ली। भतीजे अखिलेश के रुख से नाराज़ होकर उनके चाचा शिवपाल यादव भी सपा को कमजोर करने के संकेत देने लगे। आगे की उम्मीदें और भी लड़खड़ा गई। आजम खान के लिए अखिलेश ने उतना संघर्ष नहीं किया जितना करना चाहिए था। वो दो वर्षों में बस एक बार ही उनसे मिलने जेल गए। चुनाव हारने के बाद एम एल सी चुनाव की दावेदारी में यादवों का बोलबाला रहा और यहां भी मुस्लिम साइड लाइन कर दिए गए।
एक कौम और एक पार्टी के पुराने रिश्तों के टूटने के आसार की ये सब ही वुजुहात हैं। अभी भी अखिलेश यादव अपने सबसे बड़े पारंपरिक वोट बैंक को नहीं संभाल सके तो मुस्लिम वोट कहां जाएगा ? ये भी बड़ा सवाल है।
इस सवाल की एक धुंधली तस्वीर दिख रही है-
आगामी लोकसभा चुनाव में यूपी का मुस्लिम वोट कांग्रेस के साथ तब ही जा सकता है जब कांग्रेस किसी बड़े दल से गठबंधन करे।
या फिर मुस्लिम वोट सपा, कांग्रेस, बसपा और भाजपा में बिखर सकता है!
मजबूरी हो, दबाव हो, नया विश्वास हो या डर,फिलहाल मुसलमानों का एक हिस्सा भाजपा पर विश्वास जताता नजर आ रहा है।
इस परिवर्तन को आप एक पुरानी कहावत से भी जोड़ सकते हैं-
“मजबूरी का नाम महत्मा गांधी”

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