(बॉलीवुड के अनकहे किस्से) काला बाजार, सेंसर बोर्ड और मदर इंडिया का प्रीमियर

अजय कुमार शर्मा

साल 1960 में रिलीज हुई काला बाजार विजय आनंद की नवकेतन के लिए तीसरी फिल्म थी। उन्होंने सबसे पहले टैक्सी ड्राइवर नाम की फिल्म के लिए स्क्रिप्ट लिखी थी और दूसरी फ़िल्म नौ दो ग्यारह की कथा, पटकथा, संवाद और निर्देशन उन्होंने ही किया था। अपनी तीसरी फिल्म काला बाजार का आइडिया उन्हें सेंट जेवियर कॉलेज, मुंबई में अपनी पढ़ाई के दौरान आसपास के सिनेमाहालों, मेट्रो, लिबर्टी और इरोज़ में टिकटों को ब्लैक में बिकते देखकर आया था। कहानी के अनुसार फिल्म का नायक रघुवीर अपनी बेरोजगारी से विवश होकर फिल्मों की टिकट की कालाबाजारी में उतरता है और धीरे-धीरे उस रैकेट का सरगना बन जाता है, लेकिन एक दिन नायिका अलका द्वारा ब्लैक में टिकट खरीदने का विरोध करते हुए उनको फाड़कर फेंक देने का उस पर गहरा प्रभाव पड़ता है। नायिका से संपर्क और बढ़ने पर उसमें परिवर्तन आना शुरू होता है और वह अपने साथियों के साथ यह काम छोड़कर सही राह पर चलने का निर्णय लेता है। शुरू में हिचक के बाद उसके दोस्त भी उसका साथ देते हैं। इसी दौरान नायक एक वकील के चुराए 5000 रुपये, सत्य के प्रभाव में आकर उसको लौटा देता है और कहता है कि चाहे तो वह उसे जेल भिजवा सकता है। वकील साहब उसकी सच्चाई देख कर उसे माफ कर देते हैं।

कुछ समय बाद नायक को पुलिस गिरफ्तार कर लेती है। उस वकील को जब यह पता चलता है तो वह नायक के पक्ष में मुकदमा लड़ता है और अदालत के सामने अपना पक्ष रखते हुए कहता है कि अपराधी को खुद पश्चाताप हुआ है, अत: उसे सजा देना ठीक नहीं होगा। वह जज को सजा माफ़ करने के लिए कहता है। जज इस बात से तो सहमत है किंतु उसका मानना है कि अपराधी को सजा मिलनी ही चाहिए। कानूनन वे उसे एक दिन की सजा देते हैं और कहते हैं कि अदालत की कार्यवाही खत्म होते ही सजा पूरी हो जाएगी। विजय आनंद को इस क्लाइमैक्स का आइडिया अमेरिका में घटी एक सच्ची घटना के बारे में पढ़कर आया था जिसमें एक अपराधी जिसके माध्यम से बहुत लोगों का भला हुआ था, को न्यायाधीश ने केवल एक दिन की सजा दी थी जो उस दिन की अदालत खत्म होते ही पूरी हुई मानी गई थी।

नवकेतन की फिल्म होने के कारण फिल्म के हीरो देवानंद होंगे, यह तो तय था। हीरोइन के लिए वहीदा रहमान का चयन किया गया क्योंकि उसी दौरान सोलहवां साल और सीआईडी फ़िल्म में देवानंद और वहीदा रहमान की जोड़ी को दर्शकों ने काफी पसंद किया था। नायक की बहन की भूमिका के लिए नंदा को चुना गया था। यह भूमिका छोटी थी लेकिन महत्वपूर्ण थी। वकील के रूप में चेतन आनंद और किशोर साहू का चयन किया गया था। किंतु यह क्लाइमैक्स सेंसर बोर्ड को पसंद नहीं आया। उसका कहना था कि एक अपराधी को आप नायक के रूप में प्रस्तुत कैसे कर सकते हैं? इस विवाद को लेकर उस समय संसद में भी चर्चा हुई थी कि यह फिल्म कहीं न कहीं दर्शकों को काला बाजारी सिखा रही है। कई मीटिंग के बाद भी सेंसर बोर्ड इस बात के लिए तैयार नहीं हुआ कि एक अपराधी को सजा न दी जाए और वह जेल न भेजा जाए। थक हार कर गोल्डी को दूसरा क्लाइमैक्स फिल्माना पड़ा और नायक तथा उसके दोस्तों को जेल भेजना पड़ा, लेकिन यह इतना प्रभावशाली नहीं था। फिल्म चली तो लेकिन उतनी नहीं चली जितने की उम्मीद थी। फिल्म का संगीत एसडी बर्मन ने दिया था जो कि बहुत लोकप्रिय हुआ था। फ़िल्म के गीत शैलेंद्र ने लिखे थे जबकि उससे पहले नवकेतन की हर फ़िल्म के गीत साहिर और मजरूह सुल्तानपुरी ही लिखा करते थे। इसके गीत खोया खोया चांद, ऊपरवाला जानकर, सच हुए सपने, रिमझिम के तराने… आज भी सुने जाते हैं।

चलते चलते

फिल्म में एक उल्लेखनीय बात थी कि इस फिल्म में देवानंद द्वारा टिकट ब्लैक करने के जो दृश्य थे उनमें वास्तविकता लाने के लिए गोल्डी ने उन्हें उस समय की सुपरहिट फिल्म मदर इंडिया के प्रीमियर के दौरान फिल्माए थे। इस फ़िल्म का प्रीमियम लिबर्टी सिनेमाघर में अक्टूबर 1957 में हुआ था। मदर इंडिया के प्रीमियर के लिए उस समय के फिल्म उद्योग की सभी महत्वपूर्ण हस्तियां जैसे नरगिस, दिलीप कुमार, राज कपूर, किशोर कुमार, लता मंगेशकर, बेबी नाज़, सोहराब मोदी और ख़ुद महबूब ख़ान आदि मौजूद हुए थे। दर्शकों ने पहली बार किसी फिल्म का प्रीमियर वास्तविक रूप में पर्दे पर देखा था और उसका ख़ूब आनंद भी लिया था।

(लेखक, राष्ट्रीय साहित्य संस्थान के सहायक संपादक हैं। नब्बे के दशक में खोजपूर्ण पत्रकारिता के लिए ख्यातिलब्ध रही प्रतिष्ठित पहली हिंदी वीडियो पत्रिका कालचक्र से संबद्ध रहे हैं। साहित्य, संस्कृति और सिनेमा पर पैनी नजर रखते हैं।)

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