हमारी माटी और हुनर ने हमें कोरोना की बर्बादी से बचा लिया

लखनऊ। वैश्विक महामारी कोरोना के बुरे दौर में भी अपनी मिट्टी और इसे गढ़ने का हुनर ही काम आया। संक्रमण रोकने के लिए हुए लॉकडाउन के कारण सब कुछ अचानक ठहर सा गया। आपूर्ति की पूरी चेन गड़बड़ हो गई। अचानक सुझा कि, हम जिस मिट्टी से काम करते हैं और इससे टेरोकोटा के जो उत्पाद तैयार करते हैं उसे न सड़ना है न उसकी कोई एक्सपायरी डेट होती है। लिहाजा बेहतर दिनों की उम्मीद में हमने अपना काम जारी रखने की सोची। समय काटने और बेहतर दिनों की उम्मीद में हमने अपना काम जारी रखा। जो सोचा था, बाद में वही हुआ। कोरोना के बाद इतने आर्डर आये कि जो भी बना था, वह खत्म हो गया। पर इसके पीछे भी मूल रूप से हमारे महाराजजी (मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ) ही थे। उनके द्वारा टेरोकोटा को गोरखपुर का ओडीओपी (एक जिला, एक उत्पाद) घोषित करने एवं लगातार इसकी ब्राडिंग के नाते काम की स्थिति ठीक थी। हमारे पास काम लायक पूंजी थी। साथ में बाकी संसाधन भी। लिहाजा हमारा काम चल गया। अन्यथा तो हममें से कई बर्बाद हो जाते।

यह कहना है गोरखपुर के उत्तरी छोर पर स्थित गुलरिहा गांव के 40 वर्षीय राजन प्रजापति का। राजन मिट्टी में जान डालने के हुनर में माहिर हैं। इसके लिए उनको राष्ट्रपति, भारत सरकार और उत्तर प्रदेश सरकार से पुरस्कार मिल चुका है।
दरअसल, गोरखपुर में गुलरिहा से लगे एक गांव है औरंगाबाद। कुम्हार बिरादरी के इस गांव के लोग समय की जरूरत के अनुसार मिट्टी अलग-अलग चीजें बनाने का काम करते रहे हैं। यही इनका पुश्तैनी पेशा है। इसी में से कुछ लोगों ने अलग-अलग साइज के हाथी-घोड़े बनाने की शुरुआत की। बाद में उनके इसके हुनर को टेराकोटा नाम मिला। धीरे-धीरे औरंगाबाद इस काम के लिए मशहूर हो गया। तारीफ मिलने पर यहां के लोगों ने खुद को बाजार की मांग के अनुसार ढाला। लिहाजा इनके पास दूर-दूर से आर्डर आने लगे। देखी-देखा यह काम आसपास के कुछ अन्य गावों में भी होने लगा। इसमें अभूतपूर्व परिवर्तन 2017 के बाद तब आया जब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की पहल पर इसे गोरखपुर का ओडीओपी (एक जिला, एक उत्पाद) घोषित किया गया। वर्तमान में औरंगाबाद के साथ ही गुलरिहा, भरवलिया, जंगल एकला नंबर-2, अशरफपुर, हाफिज नगर, पादरी बाजार, बेलवा, बालापार, शाहपुर, सरैया बाजार, झुंगिया, झंगहा क्षेत्र के अराजी राजधानी आदि गांवों में टेराकोटा शिल्प रोजगार का बड़ा जरिया बना हुआ है।

बाबा ने हमारी मिट्टी को सोना बना दिया

बकौल राजन प्रजापति, बाबा (गोरक्षपीठाधीश्वर के नाते पूर्वांचल में योगी आदित्यनाथ को लोग बाबा या महाराज के ही नाम से पुकारते हैं) ने हमारी मिट्टी को सोना बना दिया। टेराकोटा को गोरखपुर का ओडीओपी (एक जिला,एक उत्पाद) घोषित करने के साथ खुद ही वे इसके ब्रांड अम्बेसडर बन गये। हर मंच से उनके द्वारा इसकी चर्चा के नाते हमारे उत्पादों की जबरदस्त ब्रांडिंग हुई। ओडीओपी योजना के तहत मिलने वाली वित्तीय मदद पर अनुदान, नई तकनीक और विशेषज्ञों से मिलने वाले प्रशिक्षण ने सोने पर सुहागा का काम किया। ऐसा कहने वाले राजन अकेले नहीं हैं। उनके वर्कशॉप में काम कर रहे जगदीश प्रजापति, रविन्द्र प्रजापति और नागेंद्र प्रजापति भी हैं। माटी में जान डालने का हुनर रखने वाले ये सभी लोग उद्योग निदेशालय उत्तर प्रदेश सरकार से पुरस्कृत हो चुके हैं।

नई तकनीक व भरपूर बिजली से उत्पादन दोगुना

यह पूछने पर कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा टेराकोटा को गोरखपुर का ओडीओपी घोषित करने से क्या लाभ हुआ? नागेन्द्र प्रजापति कहते हैं कि सोच भी नहीं सकते। वित्तीय मदद, इसके तहत मिलने वाले अनुदान, अद्यतन तकनीक और भरपूर बिजली से हम सबको बहुत लाभ हुआ। मसलन, पहले हम चाक को हाथ से घुमाते थे। एक मानक गति के बाद मिट्टी को आकार देते थे। गति कम होने के बाद फिर उसी प्रक्रिया को दोहराते थे। इसमें समय एवं श्रम तो लगता ही था, उत्पादन भी कम होता था। अब तो बटन दबाया, बिजली से चलने वाला चाक स्टार्ट हो जाता है। जब तक बिजली है, आप दिन रात काम करते रहिए। इससे हमारा उत्पादन दोगुने से अधिक हो गया। इसी तरह पहले हम पैर से मिट्टी गूथते थे। वह अगले दिन चाक पर चढ़ाने लायक होती थी। पग मशीन ने यह काम आसान कर दिया। इससे दो घण्टे में इतनी मिट्टी गूथ दी जाती है कि आप हफ्ते-दस दिन तक उससे काम कर सकते हैं।
पहले हम हाथी, घोड़ा जैसे बड़े कच्चे आइटम बनाकर रंग-रोगन एवं डिजाइन के लिए उसे किसी ऊंची समतल जगह पर रखते थे। उसे घुमा-घुमाकर फिनिशिंग का काम करते थे। अब हमारे पास घूमने वाला डिजाइन टेबल है। उसे घुमाकर काम करने में आसानी होती है।

ओडीओपी घोषित होने के बाद 30-35 फीसद नये लोग जुड़े

टेराकोटा के ओडीओपी घोषित होने के बाद इससे करीब 30-35 फीसद और लोग जुड़े हैं। जुड़ने वाले भी दो तरह के हैं। मसलन कुछ लोग तो कच्चा माल तैयार करने के साथ फिनिशिंग और पकाने तक का मुकम्मल काम करते हैं। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो प्रति पीस और साइज की दर पर कच्चा माल तैयार कर अन्य शिल्पकारों को पहुंचा जाते हैं। यहां उनके रंग रोगन, डिजाइन के बाद पकाने का काम होता है।

दिल्ली में बिलगू के टेराकोटा उत्पादों का जलवा
उल्लेखनीय है कि माटी में जान डालने की शुरुआत औरंगाबाद के लोगों ने ही की। इस गांव में ऐसे कुछ परिवार भी मिल जाएंगे, जिनकी तीन लगातार पीढ़ियों को केंद्र या राज्य सरकार ने सम्मानित किया है। यहीं से निकले अलगू के भाई बिलगू उर्फ विनोद ने दिल्ली में यह काम शुरू किया। आज वह बड़े वर्कशॉप के मालिक हैं। यही नहीं, यहां के लोग अलगू के हुनर का लोहा मानते हैं।
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