सुना था कि मैसूर जो अब मैसुरु के नाम से जाना जाता है, बहुत ही सुंदर और साफ है.

सुना था कि मैसूर जो अब मैसुरु के नाम से जाना जाता है, बहुत ही सुंदर और साफ है। वहां की छवियां पत्र-पत्रिकाओं, टीवी और ट्रैवल ब्लॉग पर अक्सर देखती थी। पिछले साल बैंगलुरु गए तो एक शनिवार सुबह मैसूर चल पड़े। सरपट दौड़ती सड़कों के किनारे हरियाली का कारवां…आवाज सा देता था।

शहर में घुसते ही एक सुसंस्कृत माहौल का आभास हुआ। ड्राइवर को खासी जल्दबाजी थी तो गलियों के जाल में गाड़ी मोड़ ली। एक बार लगा कि प्रतिवाद करूं लेकिन फिर सोचा, शायद यहां कुछ कहानियां मिल जाएं। तंग गलियों में छोटे-छोटे घर और उनके सामने बनी रंगोलियां…सुंदर था सबकुछ।

हर घर के आगे फूल-पौधे थे। रंग-बिरंगी साडिय़ां पहने बालों में गजरे लगाए काम करतीं स्त्रियां जीवन से भरपूर थीं। नालियां साफ, गंदगी का कोई निशान नहीं था। फिर भी मन में खटका सा था कि कहीं से झगडऩे की आवाज न आने लगें। ऐसा नहीं हुआ और जल्दी ही हम गलियों से निकल चौड़ी सड़क पर आ गए।

मैसूर महल

हमारे सामने मैसूर का वही विख्यात महल था, जिसकी दशहरे की जगमगाती तस्वीरें देखी थीं। विशाल क्षेत्र में इसका फैलाव और खूबसूरती, दोनों बेजोड़ हैं। महल के अंदर खास शाही कक्ष के बारे में बताते हुए गाइड ने बताया कि वाडियार राजवंश अपनी शानो-शौकत के लिए हमेशा से ही मशहूर रहा है और आज भी उनकी विरासत कायम है। उस समय की जीवनशैली को दर्शाते पलंग, ड्रेसिंग टेबिल, बेल्जियम ग्लास के बड़े आईने, अलग-अलग मौकों पर पहनी जाने वाली पोशाकें, शस्त्र, पालकियां, आभूषण अनायास ही बीते समय की याद दिला देता है। राज परिवार की तस्वीरों में खूबसूरत साडिय़ों में सजी महिलाओं को देख कर मैसूर सिल्क की साडिय़ों का सम्मोहन अपनी तरफ खींचने लगता है। महल के प्रांगण में कई मंदिर हैं, जिनमें प्रमुख सोमेश्वर मंदिर, लक्ष्मी रमना मंदिर, प्रसन्न कृष्णा स्वामी मंदिर और गायत्री मंदिर हैं। इन सभी मंदिरों में विधिवत पूजा होती है। आज भी बरसों की परंपराएं यहां कायम हैं। चाहे शासन प्रणाली बदल गई हो पर जनता के अंदर आज भी राजशाही के प्रति आदर और कौतूहल पूर्ववत नजर आता है। इसका प्रमाण है, महल देखने के लिए दर्शकों की उमड़ी भीड़, जो आसपास की ज्यादा है।

मैसूर राजमहल की दीवारों की पेंटिंग्स यहां की भव्यता दर्शाती हैं, इनमें सोने की परत चढ़ाई जाती है और इसमें गेसो तकनीक का इस्तेमाल होता है। इन पेंटिंग्स के माध्यम से आप बीते दिनों की सैर कर लेते हैं क्योंकि इनका चित्रण बड़ा ही सजीव है।

चामुंडेश्वरी मंदिर

कर्नाटक राज्य में बसे इस शहर के नाम के पीछे दिलचस्प कहानी है। मैसूर चामुंडा पहाड़ी के पास बसा हुआ है और इसी पहाड़ी के ऊपर चामुंडेश्वरी मंदिर भी है। ऐसा पौराणिक उल्लेख मिलता है कि देवी ने महिषासुर राक्षस की हत्या की थी। महिषासुर के बारे में प्रचलित है कि वह मानव और बैल दोनों का रूप धारण कर लेता था। उसी महिषासुर के नाम पर यहां का नाम मैसूर पड़ा है। इस पहाड़ी से मैसूर के बहुत सुंदर दृश्य देखने को मिलते हैं। मंदिर में विधिवत तरीके से पूजा होती है और आस्था का प्रभाव पूरी तरह छाया दिखता है।

दशहरा की धूम

दशहरा कर्नाटक राज्य का प्रमुख त्योहार है, जो यहां पूरे दस दिन तक धूमधाम से मनाया जाता है। इसकी शुरुआत वादियार राजाओं ने 16वीं शताब्दी में की थी। विजयादशमी के दिन सुसज्जित हाथी के ऊपर मां चामुंडेश्वरी की झांकी निकलती है और पीछे ढोल-नगाड़े और नाचते-गाते लोग होते हैं। इस आयोजन को कन्नड़ में पाणिजीना कवायतथु के नाम से जानते हैं।

सांस्कृतिक राजधानी

मैसूर कर्नाटक की सांस्कृतिक राजधानी के तौर पर भी जाना जाता है। कन्नड़ साहित्य के कई विख्यात लेखक हुए हैं, जिनमें गोपाल कृष्ण अडिगा, यू. आर. अनंतमूर्ति उल्लेखनीय हैं। आर. के. नारायण के जीवन का भी काफी हिस्सा मैसूर में गुजारा है। खेलकूद को भी राजशाही ने बहुत प्रोत्साहन दिया, यही कारण है कि आज भी यहां क्रिकेट और गोल्फ के कई हरे-भरे मैदान हैं।

मैसूर सिल्क

ड्राइवर को इस इलाके की अच्छी जानकारी थी, तो वह हमें शहर के एक एंपोरियम में ले गया। देखने के बाद कौन सी स्त्री होगी, जो मैसूर सिल्क साडिय़ों को न कहेगी…। फिर क्या था, कई साडिय़ां खरीदीं और शोकेस में मैसूर पेटा या पगड़ी भी दिखी, जो बड़ी आकर्षक थी। बगल की एक दुकान में चंदन अगरबत्ती, मैसूर संदल सोप और चंदन की लकड़ी से बनी कलाकृतियां दिख रही थीं। चंदन तस्कर वीरप्पन की याद आ गई, यहां के जंगलों पर कभी उसका साम्राज्य हुआ करता था। चारों ओर बिखरी भीनी-भीनी खुशबू मन को ललचाने लगी तो मैंने छोटी-छोटी चंदन की पोटलियां उठा लीं, जिन्हें कहीं भी रख दें, चारों ओर अपनी खुशबू फैला देती हैं।

स्वाद पारंपरिक व्यंजनों का

घूमते हुए सुबह से दोपहर हो चली थी। स्टोर से बाहर निकले तो भूख का एहसास हुआ और मसालों की तीखी खुशबू ने बेचैन कर दिया। पास के ही एक रेस्तरां में हम बिसिबेले भात खाने पहुंच गए। यह कन्नड़ घरों में बनने वाली दाल, चावल, मसालों की तीखी-खट्टी पारंपरिक डिश है, जिसमें प्याज-लहसुन का इस्तेमाल वर्जित है। तीखा-खट्टा खाने के बाद हम उत्तर भारतीयों के लिए मीठा स्वाद भी जरूरी है तो मैसूर पाक खरीदा। यह घी, बेसन, चीनी और इलायची से बनी स्वादिष्ट मिठाई है। इसकी ईजाद वाडियार राजा के शाही रसोइये काकासुर मड़प्पा ने की थी। शाही खानसामों पर पाक कला के बेहतरीन नमूने पेश करने की बड़ी ज‍िम्मेदारी होती थी। इसी क्रम में कई बार कोई ऐसी खोज हो जाती थी, जो इतिहास के पन्नों में शामिल हो जाती।

वृंदावन गार्डन

मैसूर से कुछ ही दूरी पर चर्चित वृंदावन गार्डन है, जहां संगीतमय फव्वारे हैं। यहां लोग हिंदी समझ-बोल लेते हैं हालांकि उनके बोलने का अंदाज बहुत दिलचस्प है। हमने ड्राइवर को दुकान के बाहर इंतजार करने को कहा तो उसने बड़ी बेतकल्लुफी से कहा, ‘परवाह नहीं…। एकबारगी हम चौंक गए, हालांकि उसका मतलब था कि हम बेफि‍क्र होकर जा सकते हैं।

घूमने के साथ-साथ खरीदारी के कई मौके भी मिलते हैं यहां। इस जगह को जानने समझने के लिए एक दिन काफी नहीं है। जहां तक भी नजर जाती है, साफ-सुथरी सड़कें, बेहतरीन ट्रांस्पोर्ट, सुंदर-मजबूत इमारतें, घने पेड़ और दूर तक फैले घास के मैदान…दिखते हैं।

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