नई दिल्ली : भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में मिले जीवाश्मों से यह साबित हुआ है कि एक समय यह क्षेत्र पश्चिमी घाट की तरह गर्म और आर्द्र था। समय के साथ यहां के तापमान, वर्षा और हवाओं में बदलाव हुए, जिससे यह क्षेत्र उष्णकटिबंधीय पौधों के लिए अनुपयुक्त हो गया। यह जलवायु परिवर्तन आज भी जारी है।
यह जानकारी बीरबल साहनी पैलियोसाइंसेज़ संस्थान, लखनऊ (बीएसआइपी) के शोधकर्ताओं द्वारा दी गई है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी) के अधीन स्वायत्त इस संस्थान की टीम ने असम के माकुम कोलफील्ड से प्राप्त 24 लाख वर्ष पुराने पत्तों के जीवाश्मों का अध्ययन किया। इनकी बनावट की पहचान हर्बेरियम तुलना और क्लस्टर विश्लेषण के माध्यम से की गई। अध्ययन में यह स्पष्ट हुआ कि यह जीवाश्म वेस्टर्न घाट्स में आज भी पाए जाने वाले ‘नोथोपेगिया’ वंश के पौधों से मेल खाते हैं।
शोधकर्ताओं ने जलवायु पत्ती विश्लेषण बहुविषयी कार्यक्रम (सीएलएएमपी) की सहायता से यह भी स्पष्ट किया कि उस काल में पूर्वोत्तर भारत का वातावरण गर्म और आर्द्र था। लेकिन जैसे ही टेक्टोनिक गतिविधियों से हिमालय का उत्थान हुआ, तापमान, वर्षा और हवाओं में भारी परिवर्तन आए। इससे यह क्षेत्र ठंडा होता गया और ‘नोथोपेगिया’ जैसे उष्णकटिबंधीय पौधों के लिए अनुपयुक्त हो गया।
दूसरी ओर, पश्चिमी घाट का जलवायु स्थिर बना रहा। इसी कारण ‘नोथोपेगिया’ वंश वहां अब भी जीवित है और यह एक प्राचीन पारिस्थितिकी का अवशेष माना जा सकता है।
शोध पत्र ‘रिव्यू ऑफ पैलियोबॉटनी और पैलिनोलॉजी’ में प्रकाशित हुआ है। अध्ययन में यह भी दर्शाया गया है कि जैविक प्रवास और प्रजातियों के विलुप्त होेने की घटनाएं प्राकृतिक जलवायु परिवर्तन से जुड़ी रही हैं।
शोध की सहलेखिका हर्षिता भाटिया ने इसे “अतीत की एक खिड़की” कहा है, जो भविष्य को समझने में मदद कर सकती है। यह खोज दक्षिण एशिया की जैव विविधता के इतिहास को समझने में एक महत्वपूर्ण योगदान मानी जा रही है।