

आज की राजनीतिक प्रतिद्वंदता और विरोध को देखते हुए यह आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है कि इतिहास में भारत को संगठित होने से कैसे रोका गया होगा ? आज एक शख़्स चाह रहा है कि भारतीय राष्ट्रीयता और सनातन संस्कृति के आधार पर एक संगठित और सशक्त राष्ट्र का निर्माण हो मगर दो-दर्जन से ज़्यादा दल और उसके नेता अपने अवसरवादी मानसिकता तथा तात्कालिक स्वार्थ वस दुश्मनी के हद तक विरोध कर रहे है।ये देख कर लग रहा है कि सशक्त और संगठित राष्ट्र के निर्माण के लिए चंद्रगुप्त को कितना संघर्ष करना पड़ा होगा, राणाप्रताप को इनलोगों ने कैसे पराजित किया होगा, शिवाजी को कैसे इन जैसे विरोधियों ने परास्त किया होगा, बाज़ीराव पेशवा को कैसे मरवाया होगा? यही दुर्भाग्य है हिंदुस्तान का, हिंदुस्तान हमेशा से अपने मिट्टी के ग़द्दारों से आहत रहा है, अपने भीतरघात से परेशान रहा है। सभी बाहरी आक्रमणकारियों ने अपने साथ चन्द लुटेरे ही लाकर यहीं के जयचंदों से मिलकर हिंदुस्तान को बाँटा, ग़ुलाम बनाए और राज किए।
मगर इस बार के चुनाव नतीजे इशारा करते हैं कि जनता को आज इन ग़द्दारों की हक़ीक़त पता चल गया है। इन खलनेताओं के पास अब केवल जातिवाद, परिवरवाद, क्षेत्रवाद और संप्रदायवाद के नाम पर लोगों में डर पैदा करने के अलावा कोई बाँटने का रास्ता नहीं बचा है। देश को फिरसे सशक्त और विकसित बनाने के लिए अब जनता इनकी चालों और जालों में नहीं फँसने वाली!
मेरा देश बदल रहा है … सच में!
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