महाकुंभ के रंग में रंगा देवभूमि हरिद्वार

48 दिनों का होगा हरिद्वार कुंभ, 11 मार्च को शाही स्नान

शताब्दी का दूसरा कुंभ मेला इस साल है। यह कुंभ मेला 48 दिन का होगा। ग्रहों की चाल के चलते यह पर्व 12 के बजाय 11वें वर्ष पड़ गया है। ऐसे में इस बार कुंभ मेला काल 120 दिनों से घटाकर 48 दिन किया गया है। बृहस्पति और सूर्य के संयोग से बने कुंभ पर कुल चार शाही स्नान होंगे। मकर संक्रांति से महाकुंभ में स्नान शुरू होंगे। कुंभ में पहला शाही स्नान 11 मार्च शिवरात्रि के दिन, दूसरा शाही स्नान 12 अप्रैल सोमवती अमावस्या और तीसरा मुख्य शाही स्नान 14 अप्रैल मेष संक्रांति को होगा। इन तीनों स्नानों पर सभी तेरह अखाड़े 13 अखाड़े जमात निकालकर स्नान करने हर की पैड़ी जायेंगे। चौथा शाही स्नान बैसाख पूर्णिमा के दिन 27 अप्रैल को होगा। लेकिन उस स्नान पर केवल बैरागियों की तीन आणियां स्नान करेंगी। यह स्नान संन्यासी अखाड़े नहीं करते।

-सुरेश गांधी

नागा साधुओं के साथ हजारों-लाखों श्रद्धालुओं देवभूमि हरिद्वार में जमघट है। यहां प्रत्येक 12 वर्ष पर महाकुंभ व 6 साल पर अर्धकुभ लगता है। समुद्र मंथन में प्राप्त अमृत की बूंदें छलकते समय जिन राशियों में सूर्य, चन्द्र, गुरु की स्थिति के विशिष्ट योग होते हैं, वहीं कुंभ पर्व का इन राशियों में गृहों के संयोग पर ही आयोजन किया जाता है। अमृत कलश की रक्षा में सूर्य, गुरु और चन्द्रमा के विशेष प्रयत्न रहे थे। इसी कारण इन ग्रहों का विशेष महत्त्व रहता है और इन्हीं गृहों की उन विशिष्ट स्थितियों में कुंभ का पर्व मनाने की परम्परा चली आ रही है। कहते है कुम्भ पर्व विश्व में किसी भी धार्मिक प्रयोजन हेतु भक्तों का सबसे बड़ा संग्रहण है। यह श्रद्धा आस्था और उमंग के मेल का वो अद्भुत मेला है जिसका गवाह हर व्यक्ति बनना चाहता है। हजारों-लाखों की संख्या में लोग इस पावन पर्व में उपस्थित होते हैं। महाकुंभ के दौरान हर कोई गंगा में डुबकी लगाकर हर पाप, हर कष्ट से मुक्त होना चाहता है।

कुम्भ का संस्कृत अर्थ है कलश, ज्योतिष शास्त्र में कुम्भ राशि का भी यही चिन्ह है। हिन्दू धर्म में कुम्भ का पर्व हर 12 वर्ष के अंतराल पर चारों में से किसी एक पवित्र नदी के तट पर मनाया जाता है- हरिद्वार में गंगा, उज्जैन में क्षिप्रा, नासिक में गोदावरी और इलाहाबाद में संगम जहां गंगा, यमुना और सरस्वती मिलती हैं। ज्योतिषियों के अनुसार जब बृहस्पति कुम्भ राशि में और सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है तब कुम्भ मेले का आयोजन किया जाता है। कुम्भ पर्व हरिद्वार हिमालय पर्वत श्रृंखला के शिवालिक पर्वत के नीचे स्थित है। प्राचीन ग्रंथों में हरिद्वार को तपोवन, मायापुरी, गंगाद्वार और मोक्षद्वार आदि नामों से भी जाना जाता है। हरिद्वार की धार्मिक महत्ता विशाल है। यह हिन्दुओं के लिए एक प्रमुख तीर्थस्थान है। मेले की तिथि की गणना करने के लिए सूर्य, चन्द्र और बृहस्पति की स्थिति की आवश्यकता होती है। हरिद्वार का सम्बन्ध मेष राशि से है।

ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार हरिद्वार उन चार स्थानों में से एक है जहां अमृत कलश से अमृत की कुछ बूंदें गिरी थीं। श्रद्धालु इस पावन जल में नहा कर अपनी आत्मा की शुद्धि एवं मोक्ष के लिए प्रार्थना करते हैं। यहां पर शिवरात्रि का त्यौहार भी बहुत धूम धाम से मनाया जाता है। पुराणों आदि प्राचीन ग्रन्थों में उपर्युक्त चारों स्थानों पर महाकुंभ लगने के लिए ग्रहों की विशिष्ट स्थितियां बतायी गयी हैं। हरिद्वार के लिए यह इस प्रकार वर्णित है-पद्मिनीनायके मेषे, कुम्भराशिगते गुरौ। गंगाद्वारे भवेद्योगः कुम्भनाम्ना तदोत्तमः।। अर्थात् जब सूर्य मेष राशि में हो, बृहस्पति कुंभ राशि में हो, तब गंगाद्वार (हरिद्वार) में कुंभ नाम का उत्तम योग होता है। उल्लेखनीय है कि बृहस्पति प्रतिवर्ष राशि बदलता है जबकि सूर्य हर महीने राशि बदलता है। महाकुंभ का आयोजन बृहस्पति के कुंभ राशि और सूर्य के मेष राशि में आने पर होता है। सूर्य प्रत्येक वर्ष 14 अप्रैल को मेष राशि में जबकि बृहस्पति प्रत्येक बारह वर्ष बाद कुंभ राशि में आते हैं। इस बार 11वें वर्ष आगामी 5 अप्रैल को आ रहे हैं। कुंभ के मुख्य स्नान 14 अप्रैल को बना योग एक महीने तक बना रहेगा।

हिन्दू पंचांग के अनुसार, साल का ग्यारहवां महीना माघ शुरू हो गया है। इसकी महत्ता का अंदाजा इस एक छंद, ‘ज्योति धाम सविता प्रबल, तुमरे तेज़ प्रताप। छार-छार है जल बहै, जनम-जनम गम पाप।।’ से लगाया जा सकता है। कहते है इस महीने में संगम तट या हरिद्वार में गंगा स्नान या किसी अन्य धर्मस्थल पर स्नान दान और पूजापाठ से जन्मों के पाप मिटते जाते हैं। माघ महीने में संगम तट पर कल्पवास का विशेष महत्त्व है। प्रयागराज में संगम पर ब्रह्मा, विष्णु, महादेव, रुद्र, आदित्य गमन करते हैं। पुराणों में माघ मास के स्नान को नारायण की सिद्धि का सुगम मार्ग बताया गया है। माघ में प्रयागराज में तीन करोड़ दस हजार तीर्थों का समागम होता है। माघ में तिल, गुड़ व ऊनी वस्त्र दान देने से कार्यक्षेत्र में सफलता मिलती है। विवादों में जीत हासिल होती है। विष्णु धर्मसूत्र शास्त्र ने माघ महीने में बहते जल में सुर्योदय से पहले स्नान करना श्रेष्ठ कहा है।

व्युत्पत्ति के लिहाज से कुंभ मूल शब्द ’कुंभक’ (अमृत से भरा पवित्र कलश) से आया है। प्रयागराज कुंभ तीन नदियों का संगम है। जो बौद्धिक मंथन और बुद्धिमता का प्रतीक है। यह स्थल चिरकाल से ही देश की यात्रा का हिस्सा रहा है। वेदों के में उल्लेख है कि किस तरह ’’देवताओं और दानवों के बीच उस अमृत के कुंभ (पवित्र कलश) को लेकर लड़ाई हुई थी, जिसे समुद्र मंथन से निकला रत्न कहा जाता है।’’ कुंभ मेले के मूल स्वरूप का लिखित वर्णन 8वीं सदी के दार्शनिक आदि शंकराचार्य ने किया है, जो मानते थे कि कुंभ चेतना और एकता का सार है। ’’कुंभ भारतीय सभ्यता का लघु रूप है। भारत की सांस्कृतिक परंपराओं की पूर्णता की नुमाइंदगी करता है कुंभ। आनुष्ठानिक स्नान की भारतीय अवधारणा की तरह कुंभ अब जल के प्रवाह के समान ही जीवन के प्रवाह को दर्शाता है। कुंभ की छाप कायम करने के लिए दो शब्द ’दिव्य’ और ’भव्य’ का इस्तेमाल किया गया है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अर्ध कुंभ या कुंभ को नए सिरे से परिभाषित किया है, क्योंकि वे मानते हैं कि ’’कुंभ सरीखा शुभ और मांगलिक उत्सव अर्ध या अधूरा नहीं बल्कि परिपूर्ण, संपूर्ण और पूर्ण ही हो सकता है।’’

कुंभ के तीन उद्देश्य हैं- स्नान, ध्यान और दान (पवित्र संगम में नहाना, ध्यान लगाना और परोपकार के काम करना)। परोपकार के ऐतिहासिक प्रमाण राजा हर्षवर्धन के साथ ही शुरू हो जाते हैं, जो अपनी पांच साला सभाएं प्रयाग में पवित्र संगम की रेत पर किया करते थे और परोपकार की शानदार मिसाल कायम करते हुए पहने हुए वस्त्रों सहित अपना तमाम माल-असबाव और संपत्ति दान कर दिया करते थे। कहते है मानव भले देवताओं की तरह दैहिक रुप में अमर न हो लेकिन वह अमृत के सच्चे भाव का संरक्षक और संवाहक है। इसलिए कुंभ के समय संगम स्नान दैहिक अमरता के लिए किया जाने वाला स्नान नहीं है अपितु वह मनुष्य की अमरता को सुरक्षित रखने के लिए है। निजता नहीं समग्रता के लिए और जीवन नहीं बल्कि जीवंत बने रहने के लिए किया जाने वाला स्नान है। वास्तव में यह अमृत्व की कामना को अमर बनाएं रखने का संकल्प पर्व है। अमर होने की कामना सदैव यदि जीवंत बनी रहे, तो फिर देह की अमरता गौण हो जाती है। यह जीवंत कामना मनुष्यता को सदैव अद्भूत जिजीविषा से भरकर उसकी यात्रा को आगे बढ़ाती रहती है।

कहने का अभिप्राय यही है कि कुंभ स्नान मनुष्यता की जय के लिए किया जाने वाला स्नान है। जहां तक माघ स्नान का सवाल है, ‘कहते है माघ मास में भगवान विष्णु के मधुसूदन स्वरूप का शास्त्र आदेश देते हैं। मधुसूदन भगवान कृष्ण का ही एक नाम है जिन्होंने मधु नाम के रक्षण का वध किया था। माघ के महीने में भगवान मधुसूदन को मगद के लड्डू का भोग लगाकर ब्राह्मण को दान दिया जाता है। माघ के महीने में भगवान श्रीकृष्ण की काले तिलों से पूजा करने से शनि ग्रह के कुप्रभावों से छुटकारा मिलता है। माघ के महीने में माता सरस्वती की काले तिलों से पूजा करने से राहु के दोषों से मुक्ति मिलती है। माघ के महीने में काले तिलों से पितृ तर्पण करने से पितृदोष से मुक्ति मिलती है। भगवान श्रीकृष्ण का पंचोपचार पूजा करने, ओउम् श्रीनाथाय नमः मंत्र का जाप करने से भूत भविष्य वर्तमान सब सुधर जाता है। रोगों से छुटकारा मिल जाता है।

12 साल बाद आता है महाकुम्भ

पौराणिक मान्यता है कि देवता और राक्षसों के सहयोग से समुद्र मंथन के पश्चात् अमृत कलश की प्राप्ति हुई। जिस पर अधिकार जमाने को लेकर देवताओं और असुरों के बीच युद्ध हुआ। इस युद्ध के दौरान अमृत कलश से अमृत की कुछ बूंदे निकलकर पृथ्वी के चार स्थानों पर गिरा वे चार स्थान है रूद्रप्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक। जिनमें प्रयाग गंगा-यमुना-सरस्वती के संगम पर और हरिद्वार गंगा नदी के किनारे हैं, वहीं उज्जैन शिप्रा नदी और नासिक गोदावरी नदी के तट पर बसा हुआ है। अमृत पर अधिकार को लेकर देवता और दानवों के बीच लगातार बारह दिन तक युद्ध हुआ था। जो मनुष्यों के बारह वर्ष के समान हैं। अतएवं कुम्भ भी बारह होते हैं। उनमें से चार कुम्भ पृथ्वी पर होते हैं और आठ कुम्भ देवलोक में होते हैं। युद्ध के दौरान सूर्य, चंद्र और शनि आदि देवताओं ने कलश की रक्षा की थी, अतः उस समय की वर्तमान राशियों पर रक्षा करने वाले चंद्र-सूर्यादिक ग्रह जब आते हैं, तब कुम्भ का योग होता है और चारों पवित्र स्थलों पर प्रत्येक तीन वर्ष के अंतराल पर क्रमानुसार कुम्भ मेले का आयोजन किया जाता है। कुम्भ मेले का आयोजन प्राचीन काल से हो रहा है, लेकिन मेले का प्रथम लिखित प्रमाण महान बौद्ध तीर्थयात्री ह्वेनसांग के लेख से मिलता है जिसमें आठवीं शताब्दी में सम्राट हर्षवर्धन के शासन में कुम्भ का वर्णन है।

हरिद्वार में भगवान विष्णु के पग की होती है पूजा

‘अर्ध’ शब्द का अर्थ होता है आधा। और इसी कारण बारह वर्षों के अंतराल में आयोजित होने वाले पूर्ण कुम्भ के बीच अर्थात पूर्ण कुम्भ के छः वर्ष बाद अर्ध कुंभ आयोजित होता है। ग्रहों की स्थिति हरिद्वार से बहती गंगा के किनारे पर स्थित हर की पौड़ी स्थान पर गंगा जल को औषधिकृत करती है तथा उन दिनों यह अमृतमय हो जाती है। यही कारण है कि अपनी अंतरात्मा की शुद्धि हेतु पवित्र स्नान करने लाखों श्रद्धालु यहां आते हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से अर्ध कुंभ के काल मे ग्रहों की स्थिति एकाग्रता तथा ध्यान साधना के लिए उत्कृष्ट होती है। समुद्र मंथन की कथा में कहा गया है कि कुम्भ पर्व का सीधा सम्बन्ध तारों से है। अमृत कलश को स्वर्ग लोक तक ले जाने में इंद्र के पुत्र जयंत को 12 दिन लगे। देवों का एक दिन मनुष्यों के 1 वर्ष के बराबर है इसीलिए तारों के क्रम के अनुसार हर 12वें वर्ष कुम्भ पर्व विभिन्न तीर्थ स्थानों पर आयोजित किया जाता है। कुम्भ पर्व एवं गंगा नदी आपस में सम्बंधित हैं। गंगा प्रयाग में बहती हैं परन्तु नासिक में बहने वाली गोदावरी को भी गंगा कहा जाता है, इसे हम गोमती गंगा के नाम से भी पुकारते हैं। क्षिप्रा नदी को काशी की उत्तरी गंगा से पहचाना जाता है। यहाँ पर गंगा गंगेश्वर की आराधना की जाती है। इस तथ्य को ब्रह्म पुराण एवं स्कंद पुराण के 2 श्लोकों के माध्यम से समझाया गया है- विन्ध्यस्य दक्षिणे गंगा गौतमी सा निगद्यते उत्तरे सापि विन्ध्यस्य भगीरत्यभिधीयते। एव मुक्त्वा गता गंगा कलया वन संस्थिता गंगेश्वरं तु यः पश्येत स्नात्वा शिप्राम्भासि प्रिये। ज्योतिषीय गणना के अनुसार कुम्भ का पर्व 4 प्रकार से आयोजित किया जाता है।

1- कुम्भ राशि में बृहस्पति का प्रवेश होने पर एवं मेष राशि में सूर्य का प्रवेश होने पर कुम्भ का पर्व हरिद्वार में आयोजित किया जाता है। पद्मिनी नायके मेषे कुम्भ राशि गते गुरोः। गंगा द्वारे भवेद योगः कुम्भ नामा तथोत्तमाः।। 2- मेष राशि के चक्र में बृहस्पति एवं सूर्य और चन्द्र के मकर राशि में प्रवेश करने पर अमावस्या के दिन कुम्भ का पर्व प्रयाग में आयोजित किया जाता है। मेष राशि गते जीवे मकरे चन्द्र भास्करौ। अमावस्या तदा योगः कुम्भख्यस्तीर्थ नायके।। एक अन्य गणना के अनुसार मकर राशि में सूर्य का एवं वृष राशि में बृहस्पति का प्रवेश होनें पर कुम्भ पर्व प्रयाग में आयोजित होता है। 3- सिंह राशि में बृहस्पति के प्रवेश होने पर कुम्भ पर्व गोदावरी के तट पर नासिक में होता है। सिंह राशि गते सूर्ये सिंह राशौ बृहस्पतौ। गोदावर्या भवेत कुम्भों जायते खलु मुक्तिदः।। 4 – सिंह राशि में बृहस्पति एवं मेष राशि में सूर्य का प्रवेश होने पर यह पर्व उज्जैन में होता है। मेष राशि गते सूर्ये सिंह राशौ बृहस्पतौ। उज्जियन्यां भवेत कुम्भः सदामुक्ति प्रदायकः।।

हरि की पौड़ी

हरिद्वार हिन्दुओं के सात पवित्र स्थलों में से एक है। 3139 मीटर की ऊंचाई पर स्थित अपने स्रोत गौमुख (गंगोत्री हिमनद) से 253 किमी की यात्रा करके गंगा नदी हरिद्वार में गंगा के मैदानी क्षेत्रों में प्रथम प्रवेश करती है, इसलिए हरिद्वार को गंगाद्वार के नाम सा भी जाना जाता है, जिसका अर्थ है वह स्थान जहां पर गंगाजी मैदानों में प्रवेश करती हैं। हरिद्वार वह स्थान है जहां अमृत की कुछ बूंदें भूल से घड़े से गिर गयीं जब खगोलीय पक्षी गरुड़ उस घड़े को समुद्र मंथन के बाद ले जा रहे थे। वह स्थान जहां पर अमृत की बूंदें गिरी थी उसे हर-की-पौडी पर ब्रह्म कुंड माना जाता है जिसका शाब्दिक अर्थ है ईश्वर के पवित्र पग। हर-की-पौडी, हरिद्वार के सबसे पवित्र घाट माना जाता है और पूरे भारत से भक्तों और तीर्थयात्रियों के जत्थे त्योहारों या पवित्र दिवसों के अवसर पर स्नान करने के लिए यहां आते हैं। यहाँ स्नान करना मोक्ष प्राप्त करने के लिए आवश्यक माना जाता है। प्रकृति प्रेमियों के लिए हरिद्वार स्वर्ग जैसा सुन्दर है। हरिद्वार भारतीय संस्कृति और सभ्यता का एक बहुप्रदर्शक प्रस्तुत करता है। इसका उल्लेख पौराणिक कथाओं में कपिलस्थान, गंगाद्वार और मायापुरी के नाम से भी किया गया है। यह चार धाम यात्रा के लिए प्रवेश द्वार भी है (उत्तराखंड के चार धाम है- बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री), इसलिए भगवान शिव के अनुयायी और भगवान विष्णु के अनुयायी इसे क्रमशः हरद्वार और हरिद्वार के नाम से पुकारते है। हर यानी शिव और हरि यानी विष्णु।

महाभारत के वनपर्व में धौम्य ऋषि, युधिष्टर को भारतवर्ष के तीर्थ स्थलों के बारे में बताते है जहाँ पर गंगाद्वार अर्थात् हरिद्वार और कनखल के तीर्थों का भी उल्लेख किया गया है। कपिल ऋषि का आश्रम भी यहां स्थित था, जिससे इसे इसका प्राचीन नाम कपिल या कपिल्स्थान मिला। पौराणिक कथाओं के अनुसार भगीरथ, जो सूर्यवंशी राजा सगर के प्रपौत्र (श्रीराम के एक पूर्वज) थे, गंगाजी को सतयुग में वर्षों की तपस्या के पश्चात् अपने साठ हजार पूर्वजों के उद्धार और कपिल ऋषि के श्राप से मुक्त करने के लिए के लिए पृथ्वी पर लाये। ये एक ऐसी परंपरा है जिसे करोड़ों हिन्दू आज भी निभाते है, जो अपने पूर्वजों के उद्धार की आशा में उनकी चिता की राख लाते हैं और गंगाजी में विसर्जित कर देते हैं। कहा जाता है की भगवान विष्णु ने एक पत्थर पर अपने पग-चिन्ह छोड़े है जो हर की पौडी में एक उपरी दीवार पर स्थापित है, जहां हर समय पवित्र गंगाजी इन्हें छूती रहतीं हैं।

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