जीएसटी से ही थमेगी पेट्रोल-डीजल की बेलगाम चाल, पेट्रोलियम टैक्स से भरता है सरकारों का खजाना

 पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमत पर मंगलवार को पेट्रोलियम मंत्री धमेंद्र प्रधान ने कहा कि वे पेट्रोलियम पदार्थो को जीएसटी के दायरे में लाने के लिए जीएसटी काउंसिल से लगातार गुजारिश कर रहे हैं, ताकि आम लोगों को इससे फायदा हो। लेकिन यह फैसला जीएसटी काउंसिल को करना होगा। बीते शनिवार को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि पेट्रोल व डीजल की खुदरा कीमत को तार्किक स्तर पर लाने के लिए केंद्र व राज्य को साथ बैठकर तंत्र विकसित करना होगा।

चुनावी राज्यों ने इस पर टैक्स घटाकर मामूली राहत दी है। वहीं, विपक्षी दलों की ओर से केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा किया जा रहा है। लाख टके की एक बात है कि केंद्र और सभी राज्य सरकारें चाहें तो इसे जीएसटी के दायरे में लाकर एक झटके में ही पेट्रोल-डीजल की कीमत 30 फीसद तक कम हो सकती है। लेकिन इससे केंद्र व राज्य के राजस्व पर बड़ा असर पड़ेगा, जिसका सरकारी खर्च घट सकता है। बड़ा सवाल यह है कि केंद्र और राज्य सरकारें इसके लिए एकमत होंगी कि नहीं। ऐसा होना मुश्किल दिख रहा है। हालांकि इससे बड़ी मुश्किल तब होगी जब बेतहाशा बढ़ रही कीमतों का असर इकोनॉमी पर दिखेगा।

कोरोना काल में जबकि हर प्रकार के टैक्स का कलेक्शन नकारात्मक था, पेट्रोलियम से आने वाले टैक्स में 40 फीसद से ज्यादा बढ़ोतरी थी। यानी इससे हो रही कमाई ने ही सरकारों के लिए प्राण वायु का काम किया था। अब अगर इसे जीएसटी के सबसे ऊंचे स्लैब 28 फीसद में रखा जाए और अतिरिक्त पांच फीसद सेस भी लगा दिया जाए तो भी टैक्स 33 फीसद तक ही रहेगा। इस मुकाबले में अभी केंद्र व राज्य सरकारें पेट्रोल व डीजल की खुदरा कीमत पर लगभग 65 फीसद तक टैक्स वसूल रही हैं।

छत्तीसगढ़ के वित्त मंत्री टीएस सिंहदेव के अनुसार, जीएसटी कानून में पेट्रोल-डीजल को पांच वर्ष के बाद जीएसटी के दायरे में लाने की बात है। लेकिन सच्चाई यह है कि केंद्र और राज्य सरकारें इसे मानने को तैयार नहीं हैं। जीएसटी की पिछली बैठकों में भी विपक्षी दलों की ओर से इसका विरोध होता रहा और भाजपा शासित राज्य चुप्पी साधकर इसके लिए मना करते रहे। हालांकि, बदले हुए राजनीतिक माहौल में जब विपक्षी राज्यों की संख्या बहुत नहीं है, तब यह केंद्र की राजनीतिक इच्छाशक्ति पर निर्भर करेगा कि वह इसे किस तरह लागू कर पाता है।

बिहार के पूर्व वित्त मंत्री सुशील कुमार मोदी का कहना है कि कोरोना काल की वजह से चालू वित्त वर्ष में केंद्र व राज्य दोनों के राजस्व पर दबाव है। ऐसे में पेट्रोल-डीजल को जीएसटी दायरे में लाने का यह सही वक्त नहीं है। उनके अनुसार राज्य तभी राजी हो सकते हैं जब उन्हें पेट्रोल-डीजल के जीएसटी दायरे में लाने से होने वाले नुकसान की भरपाई की जाए, जो अभी मुश्किल दिख रही है।

छत्तीसगढ़ जैसे छोटे राज्य को भी पेट्रोल व डीजल पर लगने वाले वैट से चालू वित्त वर्ष में 2943.52 करोड़ रुपये मिल चुके हैं। इससे सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि बड़े राज्य अपने राजस्व के लिए पेट्रोल-डीजल के टैक्स से होने वाली आय पर कितना निर्भर हैं।

ईवाई के टैक्स पार्टनर अभिषेक जैन कहते हैं कि पेट्रोल व डीजल पर लगने वाले उत्पाद शुल्क व वैट की रकम केंद्र व राज्यों को सीधे कंपनियों से मिल जाती है। ऐसे में जीएसटी के दायरे में आने के बाद उसकी भरपाई का केंद्र सरकार को तुरंत इंतजाम करना होगा। उसके बिना इसे जीएसटी दायरे में लाना मुश्किल है।

ऐसा है गणित

पेट्रोल व डीजल की खुदरा कीमतों में लगभग दो तिहाई हिस्सा टैक्स का है। केंद्र का उत्पाद शुल्क पेट्रोल पर प्रति लीटर 32.98 रुपये है। जबकि डीजल पर 31.83 रुपये है। राज्यों के वैट की औसत दर 15-25 फीसद है। फिलहाल जो व्यवस्था है उसमें भी केंद्र अपने हिस्से का एक अंश भी राज्यों को देता है। ऐसे में मोटे तौर पर केंद्र और राज्यों की हिस्सेदारी लगभग आधी आधी होती है।

आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2014-15 में केंद्र को पेट्रोल व डीजल से उत्पाद शुल्क के रूप में 1.72 लाख करोड़ रुपये मिले जो वर्ष 2019-20 में 94 फीसद बढ़कर 3.34 लाख करोड़ रुपये हो गया। वैसे ही, वैट के रूप में राज्यों को वर्ष 2014-15 में 1.60 लाख करोड़ रुपये मिले जो वर्ष 2019-20 में 37 फीसद बढ़कर 2.21 लाख करोड़ रुपये हो गया। ऐसे में जीएसटी जनता को तो राहत दे सकता है लेकिन सरकारों के लिए बोझ है।

 

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