धमकियों से भी नहीं डिगे थे सम्पादक अटल

प्रद्युम्न तिवारी

लखनऊ। छह दशक पूर्व लखनऊ के लोगों ने राजनीति की रपटीली राहों पर निकले जिस पथिक को पहचानने से इंकार कर दिया था, बाद के दौर में उसे ही सिर आंखों पर बिठाकर पांच बार संसद तक भेजा और आज उन्हें गर्व है कि उनका चयन सर्वश्रेष्ठ था। कारण, लखनऊवासियों या कहें कि मुल्क के लोगों के दिलों के बादषाह अटल बिहारी वाजपेयी ने सबको साथ लेकर जिस तरह से किसी गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री के रूप में पूरे पांच साल सरकार चलायी और देश के प्रधानमंत्री के रूप में तीन बार संसद की शोभा बढ़ाई।

देश के गौरव अटल बिहारी वाजपेयी ने लखनऊ से ही अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत की और यहीं के प्रतिनिधि के रूप  में वह सत्ता के शीर्ष तक पहुंचे। उनकी सफलता से देशवासियों, खासतौर से लखनऊ के लोगों का रोम-रोम पुलकित रहा। भारतीय संस्कारों से अनुप्राणित अटल जी राजनीतिक क्षेत्र में थे, लेकिन उनकी मूल चेतना साहित्यिक थी।

कानपुर में पढ़ाई के ठीक बाद अटल ने साहित्य को ही कर्मक्षेत्र चुना था। जून 1947 में वह लखनऊ आ गए थे। यहां उन्हें पंडित दीन दयाल उपाध्याय ने मासिक पत्रिका ‘राष्ट्रधर्म’ के संपादक का दायित्व सौंप दिया। यह वह समय था, जब देश में राजनीतिक उथल-पुथल मची थी। साहित्य पिछड़ गया था। ‘माधुरी’ सरीखी पत्रिका, जिसके सम्पादक साहित्य मनीषी पंडित रूप नारायण पांडे थे, अंतिम घड़ियां गिन रही थी। ऐसे समय में अटल के सम्पादन में 31 अगस्त 1947 को निकली राष्ट्रधर्म पत्रिका। अटल के सम्पादन में राष्ट्रधर्म पत्रिका हर ओर चर्चित हो गयी।

अटल जी की लगन और प्रतिभा एक दूसरे की पूरक थीं। यही कारण था कि राष्ट्रधर्म ने जल्दी ही प्रतिष्ठिा पा ली। पर अटल जी तो दूसरी ही माटी के बने थे। वह अकेले ही सफलता का श्रेय लेने को तैयार नहीं थे। अटल जी ने एक जगह लिखा भी है – ‘‘ लखनऊ से मासिक राष्ट्रधर्म प्रकाषित करने का निष्चय किया गया था। मैं डीएवी काॅलेज कानपुर से सीधे लखनऊ पहुंचा था। लिखने-लिखाने का शौक जरूर था किंतु पत्रिका का संपादन करना पड़ेगा, यह सुनकर सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी। मेरे साथ ही श्री राजीव लोचन अग्निहोत्री भी थे, जो संपादन कला में मेरी ही तरह कोरे थे।’’

ऐसा भी नहीं है कि सफल अंक निकालने का चमत्कार उन्होने सुख-साधन जुटाने के बाद किया हो। लखनऊ के 6, एपी सेन रोड के तीन-चार कमरे आज भी इस बात के गवाह हैं कि किन जटिल परिस्थितियों में वहां कार्य होता था। वहीं खाना, वहीं रहना और दरी पर बैठकर पत्रिका का संपादन करना। घंटों जी जान से जुटकर कार्य करते थे। यहां तक कि कई बार पत्रिका के बंडल बनाने तक का कार्य वह स्वयं करते थे। एक बार लगातार कार्य करते-करते वह बेहोष तक हो गए।

अटल ने समाचारों के साथ-साथ ‘सोद्देश्य पत्रकारिता’ को कभी ओझल नहीं होने दिया। वाकया उस समय का है जब लखनऊ से दैनिक स्वदेश समाचार पत्र का प्रकाशन दोबारा शुरू हुआ था। अटल जी ही उसके संपादक थे। उस समय दिवंगत स्वामी करपात्री जी के गुरू बद्रिकाश्रम के जगद्गुरू शंकराचार्य ब्रह्मानंद सरस्वती चातुर्मास करने लखनऊ आए थे। रोज हजारों की भीड़ उनका प्रवचन सुनने जाती थी। उस दौरान जगद्गुरू का परिवेष था चांदी-सोने का चमचमाता सिंहासन, दिन में भी प्रज्जवलित दो मशालें, बंदूकधारी प्रहरी और दूर से ही दर्शन आदि की सुविधा। यह रूढ़ि अटल जी को रास न आयी और उन्होने इस परिवेश पर स्वदेश के माध्यम से प्रहार किया। अटल जी ने आचार्य लक्ष्मीकांत शास्त्री से अखबार में एक पत्र लिखवाया। यह पत्र स्वदेश में ‘सहस्त्राक्ष’ में प्रकाशित हुआ। इसमें सामंती परिवेश पर करारा प्रहार किया गया, वह भी शास्त्रसम्मत ढंग …

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