प्रकृति एवं जीवन का श्रृंगार है सावन

जी हां, सावन एक ऐसा है जिसमें प्रकृति के सौन्दर्य, आध्यात्मिक ऊर्जा के संचार एवं आत्मिक शक्ति को जानने का अलौकिक एवं दिव्य समय है। चारों ओर हरा भरा ऩजर आता है जिससे धरती का श्रृंगार भी कहाँ जाता है। यही हरियाली सभी जीवों को जीवन देती है। यहीं हरियाली प्राकृतिक वातावरण को जिदंगी का श्रृंगार बना देती है। श्रावण मास की हर घड़ी एवं हर पल भगवान शिव को समर्पित एवं उनके प्रति आस्था एवं भक्ति व्यक्त करने का दुर्लभ एवं चमत्कारी अवसर है। श्रद्धा का यह महासावन भगवान शिव के प्रति समर्पित होकर ग्रंथियों को खोलने की सीख देता है।

सुरेश गांधी

जल तत्व की प्रधानता वाला सावन महीना सभी को भाता है। चाहे वो भगवान भोलेनाथ हो या बच्चे या फिर युवा दिलों की धड़कन हो या बड़े बुजुर्ग। हर किसी को सावन की ठंडी बयार भली लगती है। कभी रिमझिम हल्की फुहार, कभी घनघोर घटाओं का खूब बरसना, सारी प्रकृति धुल कर निखरी सी लगती है। लोगों की जुबान ‘सावन का महीना पवन करे शोर, जियरा रे झूमें ऐसे जैसे बन मां नाचे मोर’, आया सावन झूम के, ‘बदरा छाये कि झूले पड गये हाय कि मेेले लग गये, मच गयी धूम रे’, हाय हाय ये मजबूरी, ये मौसम और ये दूरी, मुझे पल पल है तडपाये, तेरी दो टकिया दी नौकरी, मेरा लाखों का सावन जाये, ‘झिलमिल सितारों का आंगन होगा, रिमझिम बरसता सावन होगा’’ जैसे गाने के बोल होते है। जिसे देखों वहीं इन गानों को गुनगुनाने लगता है। भला क्यों नहीं? सावन के आते ही मानव के साथ-साथ पूरी प्रकृति झूमने जो लगती है। हर किसी का मन शिवमय हो जाता है। बाहर-भीतर फैल जाता है सकारात्मकता का प्रकाश। हर कोई अपने जीवन से जुड़े खास लम्हों को याद करता है। बारिश की फुहारों को देख हर किसी का मन मचलने को बेताब हो जाता है। पानी की बूंदों को छूकर बरबस ही लोगों के बचपन की हसीं, यादों, मिट्टी की सोंधी खुशबू गमकने लगती है। प्रकृति की सुन्दरता मन मोह लेती है। सावन सभी के तन-मन को ताजगी का अहसास कराती है। ऐसा कोई भी नहीं होगा जो सावन में खुश न हो।

कहा जाता है सावन महीना जीवन साथी और भाई दोनों के लिए खास महत्व रखता है। कुल मिलाकर काव्य और फिल्म में सावन, बर्षा तथा उसमें विरहिणीं की व्यथा व प्रसन्न नायिका के उल्लास का वर्णन किसी न किसी रूप में मिल ही जाता है, क्यांेकि रचनाकारों ने सावन को वर्ष की जवानी का महीना मानते हुए इस सुहानी ऋतु में उसके सौन्दर्य पर रीझते हुए अपनी रचनात्मक यात्रा को गति दी है। कहते है सावन में जिनके प्रियतम उनसे दूर बसे हो उनक प्राणों में घिरती हुई घटाये, चमकती हुई बिजलियां, दर्द का एक स्पंदन भर देती है। रंचनाकारों की नजर में वर्षा ऋतु विरहणियों के लिए उद्दीपनकारी है। उनके बिरह को चित्रित करने वालों की फेहरिस्त में सूरदास कब पीछे रहे है। उन्होंने श्याम के विरह में गोपियों के मुंह से कहलवाया है….निस दिन बरसत नैन हमारे, सदा रहत पावस ऋतु हम पर, जबसे श्याम सिधारे, निस दिन बरसत नैन हमारे। सावन में परदेश जाते पति को देख कर विरहणियां जहां एक प्रसिद्ध लोकगीत ‘रेलियां बैरी पिया को लिये जा रे‘ के माध्यम से रेल को अपना दुश्मन ठहराती है वहीं कविवर बिहारी की नायिका रोटी की तलाश में परदेश जाते पति के प्यारी कहने पर यूं भडक उठती है-वामा, भामा, कामिनी, कहि बोलो प्राणेश। प्यारी कहत लजात नहिं सावन जात विदेश। महा कवि तुलसी दास ने वर्षा के माध्यम से मानवीय कल्याण से भरे संदेशों को यंू स्थान दिया है- बरसहि जलध भूमि नियराये। यथा नवहि बुधि विद्या पाये। वयो वृद्ध कवि और फिल्मी गीतकार गोपालदास नीरज ने इस ऋतु में उपेक्षित रहे गये लोगों की अनुभूतियों को इस प्रकार व्यक्त किया है- अबकी सावन में शरारत ये मेरे साथ हुई, मेरा घर छोड़ पूरे शहर में बरसात हुई।

खुद को प्रकृति से जुड़ने को मिलता है मौका
मतलब साफ है सावन का पवित्र महीना खुद को प्रकृति से जोड़ने का महीना होता है। इस माह में प्रतिदिन हम भगवान शिव को जल अर्पित कर खुद को प्रकृति से जोड़ते हैं। सावन का महीना आते ही चारों तरफ सिर्फ हरियाली ही नज़र आती है और यह रंग हमारे सौभाग्य से भी जुड़ा हुआ है। कहते हैं सावन में हरा रंग पहनकर न सिर्फ हम प्रकृति के प्रति अपना आभार व्यक्त करते हैं बल्कि यह रंग हमारे भाग्य को भी प्रभावित करता है। प्रकृति का हरा रंग महिलाओं के साजो-श्रृंगार में भी खूब दिखने लगता है। तीज और राखी जैसे उत्सव भी इसी मौसम में आते हैं। खास तौर पर महिलाओं को हरी हरी चूड़ियां पहने देखा जाता है। कई औरतें सिर्फ हरी चूड़ियां और सुहाग की चीजें ही नहीं बल्कि हरे रंग की साड़ी या फिर हरे रंग का अन्य वस्त्र पहनकर प्रकृति से खुद को जोड़ती हैं और इस तरह उनके सुहाग की सलामती का उन्हें आर्शीवाद मिलता है।

वैसे भी प्रकृति को ईश्वर का रूप माना गया है और इसीलिए उसकी पूजा भी की जाती है। इस पूरे महीने हरा पहनने वाले लोगों पर प्रकृति की विशेष कृपा होती है। या यूं कहे सावन की बूंदों संग जीवनदायी जल ही नहीं स्नेह भी बरसता है। स्नेह भरा रंग, जो जीवन की ख़ुशियों का आधार है। तभी तो इस मौसम में त्योहार के रंग, अपनों का स्नेहिल साथ और अपनापन एक अलग ही उत्साह से भर देते हैं। वर्षा ऋतु के मनमोहक वातावरण में तो प्रकृति मानो खिलखिलाती है, नए रंग में श्रृंगार कर अपना रूप बदल लेती है। बरसती बूंदों से धुला आकाश और हर तरफ छाई हरियाली कभी मायके की याद दिलाती है तो कभी बचपन में सखियों संग झूले झूलने की स्मृतियां सहेज लाती है। सुखद यह कि बदलते वक्त के साथ भी ये रंग फीके नहीं पड़े हैं। आज भी हर उम्र की स्त्रियां इन खूबसूरत रंगों को जी भरकर जीती हैं और इनमें रम जाती हैं। धानी-चूनर ओढ़े धरती बरसात का मौसम आते ही कई त्योहारों की तैयारियां शुरू हो जाती है। उत्सव पर्व मनाने की रंगत जीवन को भी नए रंग में रंग देती है।

हमारी उम्मीदों से भी सावन का गहरा नाता
यह मौसम हमारी उम्मीदों से भी जुड़ा होता है। साल भर की खेती किसानी इसी मौसम में बरसीं फुहारों पर निर्भर होती है। जीवन की सबसे जरूरी चीजें अन्न और जल बरखा की बूंदों से ही मिलते हैं। यही वजह है कि बरसात की बूंदों की अगवानी मन और जीवन दोनों करते हैं। वैसे भी हमारी लोक-संस्कृति में “प्रकृति से जुड़े ऐसे उत्सवों का अहम स्थान है। इन दिनों पूरे एक साल के बाद धरती मानो कोई धुन गुनगुनाने लगती है। पारंपरिक मान्यताओं का नया मिजाज तीज हो या श्रावण सोमवार के व्रत मेहंदी, पूजा, गीत और सज-धज, आज भी सब कुछ पारंपरिक रीत-रिवाज के अनुसार ही होता है। सावन की बदरी और लोगों के बीच गूंज रही कजरी का अलग ही नजारा है। सावन मास पर ही भक्ति की रसधारा सबसे अधिक बहती है। चाहे वे सावन सोमवार हों या फिर रक्षाबंधन, जन्माष्टमी, कजली तीज आदि व्रत-त्योहारों का यही मौसम है। यही वजह है कि हर किसी को सावन की रिमझिम फुहारों का बेसब्री से इन्तजार है। इसके साथ ही चारों तरफ उल्लास छा जाता है। जहां प्रकृति नित नये रंग बदलती है वहीं पेड़-पौधे, जीव-जन्तु, धरा सभी की रंगत देखते ही बनती है। सावन के सुहाने मौसम में मन मयूर नाच उठता है। काले बादल जब धरती से मिलते हैं तो दिलों में प्रेम की चरम की अनुभूति होती है। अठखेलियां कर रही प्रकृति के साथ झूले के बिना तो सावन की कल्पना नहीं की जा सकती।

कजरी गीत
सावन से ना जाने कितनी लोक-मान्यताएं और लोक-संस्कृति के रंग जुड़े हुए हैं। उन्हीं में से एक है- कजरी। कजरी वह विधा है, जिसे आज की आधुनिकता या यूं कहें फिल्मी गाने भी लेना तो दूर उसे छू तक नहीं सकी है। ग्रामीण अंचलों में अभी भी सावन की अनुपम छटा के बीच लोक रंगत की धारायें समवेत फूट पड़ती हैं। इसके बोल पर हर कोई झूम उठता है और गुनगुना उठता है-

रिमझिम बरसेले बदरिया, गुईयां गावेले कजरिया
मोर सवरिया भीजै न
, वो ही धानियां की कियरिया
मोर सविरया भीजै न। बीरन भइया अइले अनवइया
सवनवा में ना जइबे ननदी। पिया सड़िया लिया दा मिर्जापुरी पिया
रंग रहे कपूरी पिया ना, जबसे साड़ी ना लिअईबा
तबसे जेवना ना बनईबे, तोरे जेवना पे लगिहैं मजूरी पिया
रंग रहे कपूरी पिया ना।

‘लोकगीतों की रानी’ यानी शास्त्रीय व उपशास्त्रीय बंदिशों से रची कजरी सिर्फ गायन भर नहीं है, बल्कि यह सावन मौसम की सुन्दरता और उल्लास का उत्सवधर्मी पर्व है। जिसे उत्तर भारत ही नहीं सात समुन्दर पार विदेशों में भी बसे भारतीयों को अभी भी कजरी के बोल सुहाने लगते हैं। तभी तो कजरी अमेरिका, ब्रिटेन इत्यादि देशों में भी अपनी अनुगूंज छोड़ चुकी है। या यूं कहें लोग भले ही गांवों से नगरों की ओर प्रस्थान कर गये हों पर गांव के बगीचे में पेंग मारकर झूला झूलती महिलाएं, छेड़छाड़ के बीच रिश्तों की मधुर खनक अब भी लोगों के जेहन में है। कजरी के मूलतः तीन रूप हैं- बनारसी, मिर्जापुरी और गोरखपुरी कजरी। बनारसी कजरी अपने अक्खड़पन और बिन्दास बोलों की वजह से अलग पहचानी जाती है। इसके बोलों में अइले, गइले जैसे शब्दों का बखूबी उपयोग होता है, इसकी सबसे बड़ी पहचान ‘न’ की टेक होती है। विंध्य क्षेत्र में गायी जाने वाली मिर्जापुरी कजरी की अपनी अलग पहचान है। अपनी अनूठी सांस्कृतिक परम्पराओं के कारण मशहूर मिर्जापुरी कजरी को ही ज्यादातर मंचीय गायक गाना पसन्द करते हैं। इसमें सखी-सहेलियों, भाभी-ननद के आपसी रिश्तों की मिठास और छेड़छाड़ के साथ सावन की मस्ती का रंग घुला होता है। सावन में तो नयी ब्याही बेटियां अपने पीहर वापस आती हैं। बगीचों में भाभी और बचपन की सहेलियों संग कजरी धुनों में झूला झूलती है और रात में गांव की चैपालों में इसे उत्सव के रुप में मनाती हैं। इस कजरी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह पीढ़ी दर पीढ़ी चलती हैं और इसकी धुनों व पद्धति को नहीं बदला जाता। कजरी गीतों की ही तरह विंध्य क्षेत्र में कजरी अखाड़ों की भी अनूठी परम्परा रही है-

कइसे खेलन जइबू सावन में कजरिया, बदरिया घिर आईल ननदी
संग में सखी न सहेली, कईसे जइबू तू अकेली
गुंडा घेर लीहें तोहरी डगरिया। सावन की फुहार है मायका

यूं तो सावन के कितने ही रूप हैं, पर वह छलिए की तरह इस तरह हमारे सामने होता है कि हम उसे पहचान ही नहीं पाते। कॉलेज जाते हुए बिटिया जब कुछ गुनगुनाने लगती है, तब हमें लगता है कि उसका सावन आ गया। बेटा जब नई बाईक की मांग करने लगे, समझो उसे अपने सावन की तलाश है। गांवों में जब कल की अल्हड़ युवती अपने बच्चे के साथ गुजरती है, तब मालूम चलता है कि अरे! इस बार इसका रूप तो और भी निखर गया है। नवविवाहिताएं अपने मायके इसी सावन में आती हैं, तब वह अपने ससुराल के सावन से गांव के सावन की तुलना करने लगती है। सावन की बूंदों के पड़ते ही जैसे हरी-भरी हो जाती है वसुंधरा, वैसे ही मायके पहुंचते ही चहकने लगती हैं बेटियां। किसी भी उम्र, वर्ग या समुदाय की महिला से पूछ लीजिए उसके लिए दुनिया की सावन की बूंदों के पड़ते ही जैसे हरी-भरी हो जाती है वसुंधरा, वैसे ही मायके पहुंचते ही चहकने लगती हैं बेटियां। किसी भी उम्र, वर्ग या समुदाय की महिला से पूछ लीजिए उसके लिए दुनिया की सबसे आरामदायक (कम्फर्टेबल) जगह है मायका। जहां पहुंचकर सिर्फ तन की ही नहीं मन की थकान भी फुर्र हो जाती है। तभी तो तीज-त्योहारों के बहाने आज भी मनाई जाती हैं कि कुछ ऐसी परंपराएं जिनसे सदा हरा-भरा रहे मायके से बेटियों का संबंध। इसकी महत्ता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि विस्थापन के दौरान मुश्किलें हजार आती है लेकिन मायका का नाम सुनते ही परेशानिया दूर हो जाती है।

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