संसदों के पारस्परिक विचार-विनिमय और अनुभवों के आदान-प्रदान से सुगम होगी लोकतांत्रिक प्रणाली

नेता विरोधी दल रामगोविंद चौधरी का उद्बोधन भाषण (16 जनवरी 2020)
7वां राष्ट्रमंडल संसदीय संघ, भारत प्रक्षेप सम्मेलन, 2020 यूपी, लखनऊ

लखनऊ : राष्ट्रमंडल संसदीय संघ, भारत प्रक्षेप के 7वें सम्मेलन के उट्घाटन अवसर पर मैं आप सभी महानुभाव का उत्तर प्रदेश में स्वागत करता हूं| इस सम्मेलन में आप सभी के बीच आकर मुझे हार्दिक प्रसन्ता हो रही है, इस अवसर उत्तर प्रदेश के संसदीय इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखता है! राष्ट्रमंडल संसदीय संघ द्वारा लोकतांत्रिक प्रणालियों को और अधिक मजबूत बनाने के उद्देश्यों की पूर्ति हेतु किए जा रहे ऐसे सम्मेलन कार्यक्रमों की मैं सराहना करता हूं! मुझे विश्वास है कि राष्ट्रमंडल देशों की संसदों के पारस्परिक विचार-विनिमय और अनुभवों के आदान-प्रदान से लोकतांत्रिक प्रणाली को जनकल्याणर्थ कार्य करने में और सुगमता होगी! भारत देश का इतिहास मानवतावादी सिद्धांतों पर हमेशा आधारित है! गुरुदेव श्री रविंद्र नाथ टैगोर जी ने अपनी एक पुस्तक बांग्ला भाषी भारत इतिहास में लिखा है कि ‘भारत ने हमेशा एक समावेशी सभ्यता की न्यू रखी है उसने कभी किसी बाहरी व्यक्ति को नहीं भगाया है, कभी किसी को गैर आर्यन कहने वाले किसी व्यक्ति को अपवित्र नहीं किया है उसने किसी का भी मजाक नहीं बनाया है! भारत ने सभी को स्वीकार किया है।

उत्तर प्रदेश विधान मंडल देश का सबसे बड़ा विधानमंडल है भारतीय राजनीति, संस्कृति और सामाजिक पटल पर उत्तर प्रदेश की विशिष्ट भूमिका रही है स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के लिए प्राकृतिक अधिकार का उल्लेख फ्रांस की क्रांति के प्रणेता रूसो ने किया था! सन 1857 की आजादी की पहली लड़ाई के बाद प्रत्येक मंच से भारतीयों ने इसकी मांग की थी! इसी कड़ी में ब्रिटेन की महारानी ने इंडियन काउंसिल एक्ट 1861पारित कर काउंसिल का गठन किया जिसमें नॉर्थ-वेस्टर्न प्रांविसेज एण्ड अवध नाम दिया गया था और आजादी के बाद इसे बदलकर उत्तर प्रदेश कर दिया गया था उत्तर प्रदेश विधानमंडल का प्रथम गठन था! स्वतंत्रता, समानता व बंधुत्व की मांगों को लेकर हमने आजादी प्राप्त की थी! आजादी के बाद बनाए गए संविधान में या आत्मरूप मे विद्यमान है

भारत के संविधान का स्वरूप गणतंत्रीय तथा ढांचा संघीय है और उसमें संसदीय प्रणाली के प्रमुख तत्व विद्यमान हैं! हमारे संविधान में विधि -सम्मत शासन की व्यवस्था है !भारत की संसदे चाहे लोकसभा हो, राज्यसभा हो या राज्यों की विधानसभा एवं विधान परिषद की संसदे हो , सभी एक लिखित संविधान की सीमाओं में कार्य करती है! इनके विधायी प्राधिकार पर दो प्रकार की सीमाएं हैं एक तो यह है कि संघ और राज्यों के बीच शक्तियों का बंटवारा किया गया है दूसरी यह है कि संविधान में न्याय, मौलिक अधिकारों का समावेश है तथा न्यायिक पुनरीक्षण का प्राविधान है जिसका अर्थ है कि संसद द्वारा पारित सभी विधिया अनिवार्यत: संविधान के उपबंधों के अनुरूप होनी चाहिए हमारे संविधान में नागरिकों को मूल अधिकार दिए गए हैं धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर विभेद करने की मनाही की गई है सभी को समता का अधिकार दिया गया है वाक -स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति का अधिकार दिया गया है और संविधान के अनुच्छेद 13 में स्पष्ट कर दिया गया है कि `´ऐसी कोई नीति नहीं बनाई जाएगी जो इन अधिकारों को छीनती हो या न्यून करती हो ऐसी प्रत्येक नीति उल्लंघन की मात्रात्मक शून्य होगी”

हमारा संविधान “वसुधैव कुटुम्बकम “की हमारी मूल संस्कृति पर आधारित है वर्ष- 1893 में शिकागो में स्वामी विवेकानंद जी ने कहा था कि “मुझे गर्व है कि मैं उस धर्म से हूं जिसने दुनिया को सही सहिष्णुता और सर्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है हम सिर्फ सर्वभौमिक सहिष्णुता पर ही विश्वास नहीं करते बल्कि, हम सभी धर्मों को सच के रूप में स्वीकार करते हैं! “मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे देश से हूं जिसने इस धरती के सभी देशों और धर्मों के परेशान और सताए गए लोगों को शरण दी है! मुझे यह बताते हुए गर्व हो रहा है कि हमने अपने हृदय में उन इज़रालि यों की पवित्र स्मृतिया संजोकर रखी है, जिसके धर्म स्थलों को रोमन हमलावरों ने तोड़ -तोड़कर खंडहर बना दिया था और तब उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली थी!”

संसद का प्रत्येक सदस्य लोकसभा या राज्यसभा का अथवा किसी राज्य की विधान सभा विधान परिषद का वह पूरे देश का या राज्य का प्रतिनिधि होता है चुने जाने के बाद उसका कर्तव्यों का दायरा व्यापक हो जाता है इसीलिए भारतीय संविधान में उन्हें अनुच्छेद 105 और 194 में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी गई है ताकि वह जनता की समस्याओं को सदन में रख सके! संसद लोगों की इच्छा का प्रतिनिधित्व करती है उसका मूलभूत कार्य है कि वह सभी कार्यों में कार्यपालिका की जवाबदेही तय करें !संसद को सरकारी कार्यों की निगरानी करने और कार्यपालिका पर सतत नजर रखने में समर्थ होना चाहिए इसलिए प्रत्येक संसद के सदस्यों को संवैधानिक रूप से अन्य तमाम नियमों के माध्यम से कार्यपालिका द्वारा किए गए नीति निर्धारण पर अपने विचार व्यक्त करने और आवश्यकतानुसार संशोधन सुझाने की स्वतंत्रता और जनादेश प्राप्त है!

संसदीय प्रणाली में विपक्ष की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका होती है सदन में यदि विपक्ष ना हो तो सत्तापक्ष के स्वेच्छाचारी होने की संभावना बनी रहती है! विपक्ष सदन में प्रश्न पूछ कर, विभिन्न नियमों में प्रस्ताव लाकर बजट में कटौती प्रस्ताव लाकर सत्ता पक्ष को चौकन्ना रखता है! जनहित के कार्यों के लिए सचेस्ट करता रहता है! विपक्ष नागरिकों के अधिकारों का सर्वश्रेष्ठ संरक्षक होता है! पंडित जवाहरलाल नेहरु जी ने कहा था कि “संसदीय प्रणाली में न केवल सशक्त विरोधी पक्ष की आवश्यकता होती है ना केवल प्रभावोत्पादक ढंग से अपना विचार व्यक्त करना होता है बल्कि सरकार और विरोधी पक्ष के बीच सहयोग का आधार भी अति आवश्यक होता है किसी एक विषय के सम्बन्ध में ही सहयोग काफी नहीं है बल्कि संसद के काम को आगे बढ़ाने का आधार परस्पर सहयोग ही है और जहां तक हम ऐसा करने में सफल होंगे वहां तक हम संसदीय -तंत्र की ठोस नींव रखने में सफल होंगे”

ऐसे तमाम उदाहरण भी मौजूद हैं जब अध्यक्ष पीठ से विपक्ष को संरक्षण देकर स्वस्थ संसदीय प्रक्रिया स्थापित की गई है! उदाहरण तौर पर मैं बताना चाहता हूं कि तत्कालीन मुख्यमंत्री पंडित गोविंद बल्लभ पंत जी की ओर से स्वायत्त शासन मंत्री श्रीमती विजयलक्ष्मी पंडित को एक सरकारी संकल्प प्रस्तुत करना था !सदस्यों को इसकी पूर्व सूचना नहीं थी सदन में विपक्ष ने इस पर आपत्ति उठाई तो तत्कालीन स्पीकर राजर्षि टंडन जी ने विपक्ष की आपत्ति में बल पाया और संकल्प को 2 दिन बाद प्रस्तुत करने का निर्देश दिया! संसदीय प्रणाली में सरकार संसद के प्रति उत्तरदायी होती है और प्रतिपक्ष का दायित्व है कि वह सरकार को असफलताओं और, अकर्मण्यताओ और विफलताओं को प्रकाशित करें! पक्ष और विपक्ष दोनों ही देश और समाज के प्रति उत्तरदायी हैं! स्वस्थ संसदीय प्रणाली के लिए आवश्यक है कि सदन में प्रत्येक जनप्रतिनिधि को दलगत राजनीति से ऊपर उठकर कार्य करना चाहिए!

सदन में उठाए जाने वाले मामले जनता के होते हैं न कि किसी दल के वर्तमान में इसमे निरंतर हास्य होता नजर आ रहा है लोकसभा के प्रथम अध्यक्ष दादा साहब गणेश वासुदेव मावलंकर जी के विचारों से पूर्णत: सहमत हूं कि सच्चे लोकतंत्र के लिए व्यक्ति को केवल संविधान के उपबंधों अथवा विधानमंडल में कार्य संचालन हेतु बनाए गए नियमों और विनियमों के अनुपालन तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए बल्कि विधान मंडल के सदस्यों में लोकतंत्र की सच्ची भावना भी विकसित करनी चाहिए! यदि इस मौलिक तथ्य को ध्यान में रखा जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि यद्यपि मुद्दों पर निर्णय बहुमत के आधार पर लिया जाएगा, फिर भी यदि संसदीय सरकार का कार्य केवल उपस्थित सदस्यों की संख्या और उनके मतों की गिनती तक ही सीमित रखा गया तो इसका चल पाना संभव नहीं हो पाएगा! यदि हम केवल बहुमत के आधार पर कार्य करेंगे तो यह फासिज्म हिंसा और विद्रोह के बीज बोयेंगे! यदि इसके विपरीत हम सहनशीलता की भावना, स्वतंत्र रूप से चर्चा की भावना और समझदारी की भावना विकसित कर पाए तो हमें लोकतंत्र की भावना को पोषित करेंगे! मैं एक बार अपने इस सम्मेलन के सभापति तथा यहां उपस्थित सभी महानुभाव एवं गणमान्य अतिथियों का स्वागत करता हूं तथा सम्मेलन की सफलता के लिए अपनी हार्दिक शुभकामनाएं देता हूं!

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