बीएस राय/ AMU Minority Status: अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) का अल्पसंख्यक दर्जा अब बरकरार रहेगा। शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट की 7 जजों की संवैधानिक पीठ ने 4-3 के बहुमत से यह फैसला सुनाया। कोर्ट ने कहा कि एएमयू को अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यक दर्जा पाने का अधिकार है। इस फैसले ने 1967 के पुराने फैसले को पलट दिया है।
अल्पसंख्यक दर्जे को बरकरार रखेगा यह फैसला
दरअसल इस फैसले को भारत के संवैधानिक ढांचे के तहत अल्पसंख्यकों को दिए गए अधिकारों का सम्मान करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है। यह फैसला न केवल एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे को बरकरार रखेगा बल्कि संविधान द्वारा अल्पसंख्यक समुदायों को दी गई सांस्कृतिक और शैक्षिक स्वायत्तता को भी मजबूत करेगा।
सुप्रीम कोर्ट ने पलटा 57 साल पुराना फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसले में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) को अल्पसंख्यक दर्जा देने का समर्थन किया। सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की संविधान पीठ ने 4-3 के बहुमत से यह फैसला सुनाया, जिसमें कोर्ट ने कहा कि एएमयू भारतीय संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यक दर्जे के लिए पात्र है। इस फैसले ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा 57 साल पहले 1967 में दिए गए उस फैसले को पलट दिया, जिसमें कहा गया था कि एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा नहीं मिल सकता।
कैसे शुरू हुआ विवाद?
एएमयू की स्थापना का श्रेय सर सैयद अहमद खान को जाता है, जिन्होंने ब्रिटिश भारत में एक प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने की आकांक्षा के साथ इसकी नींव रखी थी। उनका सपना भारत में ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज जैसे उच्च शिक्षा संस्थानों की स्थापना करना था। इसी उद्देश्य के तहत 1873 में अलीगढ़ में ‘मदरसा-तुल-उलूम’ नाम से मदरसा स्थापित किया गया, जो बाद में 1877 में मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज बना और आखिरकार 1920 में इसे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का दर्जा दिया गया। एएमयू के शुरुआती उद्देश्यों में मुस्लिम समुदाय का उत्थान और शिक्षा में वृद्धि शामिल थी। लेकिन 1920 के ‘एएमयू एक्ट’ में कुछ संशोधन किए गए, जिससे धार्मिक शिक्षा पर रोक लग गई और सभी धर्मों के छात्रों के लिए विश्वविद्यालय के दरवाजे खुल गए।
1967 का सुप्रीम कोर्ट का फैसला
1967 में सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय पीठ ने एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे पर विचार करते हुए कहा कि एएमयू की स्थापना ब्रिटिश सरकार ने की थी और इसलिए इसे अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना जा सकता। कोर्ट ने यह भी कहा कि चूंकि ब्रिटिश सरकार ने इस विश्वविद्यालय को बनाने के लिए कानूनी मान्यता दी थी, इसलिए इसे मुस्लिम समुदाय का संस्थान नहीं माना जा सकता। 1967 के फैसले के बाद केंद्र सरकार ने 1981 में एएमयू एक्ट की धारा 2(1) में संशोधन करते हुए इसे “मुस्लिम-पसंदीदा संस्थान” के रूप में मान्यता दी और इसे अल्पसंख्यक का दर्जा दिया। इसके तहत एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान के तौर पर अधिकार मिले।
इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला और नए विवाद
2005 में एएमयू ने पोस्टग्रेजुएट मेडिकल कोर्स में मुस्लिम छात्रों के लिए 50% सीटें आरक्षित कर दी थीं, जिसके खिलाफ हिंदू छात्रों ने इलाहाबाद हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। 2006 के अपने फैसले में हाईकोर्ट ने एएमयू को अल्पसंख्यक का दर्जा देने का विरोध करते हुए कहा था कि यह एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है और इस आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता। इसके बाद एएमयू ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की और 2019 में मामला सात जजों की संविधान पीठ को सौंप दिया गया।
अल्पसंख्यक का दर्जा बरकरार
हालिया फैसले में सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यीय पीठ ने 4-3 के बहुमत से एएमयू को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया। फैसले में कहा गया कि अल्पसंख्यक का दर्जा मिलने का दावा इस बात पर निर्भर नहीं करता कि कोई संस्थान कानूनी रूप से स्थापित है या नहीं। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यदि संस्थान की स्थापना का उद्देश्य और मंशा अल्पसंख्यक समुदाय की ओर इशारा करती है, तो वह अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यक का दर्जा प्राप्त करने का दावा कर सकता है। हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि 2006 के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले की वैधता की जांच के लिए मामले को मुख्य न्यायाधीश को भेजा जाना चाहिए ताकि इस पर विचार करने के लिए एक नई पीठ का गठन किया जा सके।
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