लखनऊ; गोरखपुर में भी बसता है एक चित्तौड़। वही चित्तौड़ जिसके महाराणा प्रताप का अपने समय के सबसे शक्तिशाली मुगल सम्राट अकबर को साफ संदेश था, घास की रोटी खा लेंगे। अधीनता कबूल कर महलों में रहने की बजाय जंगलों की खाक छान लेंगे, पर झुकेंगे नहीं और राणा प्रताप न झुककर भी अमर हो गए।
एक बार चित्तौड़ से आए तो कभी वापस नहीं गए
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के दादा गुरु महंत दिग्विजय नाथ भी उसी चित्तौड़ के थे। हालांकि पांच वर्ष की उम्र में वह गोरखपुर स्थित गोरक्षपीठ आए तो यहीं के होकर रह गए, कभी चित्तौड़ वापस नहीं गए। वहां के लोगों के आग्रह पर एक बार जाने का मन बना भी लिया था, पर ईश्वर को यह मंजूर नहीं था। 28 सितंबर 1969 को वह ब्रह्मलीन हो गए।
बड़े बाबा का प्रभाव भी बड़ा था
नाम के अनुरूप ही वह दिग्विजयी थे। बड़े बाबा का प्रभाव भी बड़ा था। शायद चित्तौड़ उनके दिलों दिमाग पर अमिट रूप से चस्पा था। तभी तो उन्होंने गोरखपुर में भी एक चित्तौड़ आबाद करा दिया। वर्ष 1932 में उन्होंने पूर्वांचल में शिक्षा का अलख जगाने के लिए जिस प्रकल्प की स्थापना की उसका नाम “महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद रखा”। आज इस प्रकल्प की करीब तीन दर्जन से अधिक संस्थाएं शिक्षा के साथ इन संस्थाओं में पढ़ने वाले बच्चों को प्रताप का संस्कार भी दे रही हैं।
गुरुदेव अक्सर महाराणा प्रताप का जिक्र किया करते: अवेद्यनाथ
योगीजी के गुरुदेव ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ ने अपने गुरु ब्रह्मलीन महंत दिग्विजय के बाबत” महंत दिग्विजयनाथ स्मृति ग्रंथ” में लिखा है- मेरे गुरुदेव अक्सर महाराणा प्रताप का जिक्र करते थे। कहते थे उस समय के अन्य राजे रजवाड़े भी स्वार्थ, पद लोलुपता छोड़ महाराणा प्रताप के नक्शे कदम पर चल सकते थे, नहीं चले तो वह इतिहास में दफन हो गए और राणा प्रताप हिंदू समाज के गौरव के रूप में अमर। वह अपने नाम के अनुरूप ही दिग्विजयी थे। वह जीवन के अंतिम क्षण तक हिंदू जाति, धर्म और राष्ट्र के हित चिंतन में लगे रहे। पवित्र उद्देश्य से लक्ष्य निर्धारित करने, मजबूत संकल्प और हरसंभव तरीके से पूरा करने की उनमें अद्भुत क्षमता थी। साथ ही प्रतिभावान लोगों को परखने, प्रोत्साहित करने और उसी अनुसार मौका देने की विलक्षण प्रतिभा भी। (महंत दिग्विजय नाथ स्मृति ग्रंथ)। उनका मजबूत इरादा और संकल्प शायद उस चित्तौड़ से मिली थी, जो उनकी मातृभूमि थी। उनका जन्म उदयपुर के प्रसिद्ध राणा परिवार में हुआ था।
जब कोई हिंदू और हिंदुत्व की बात नहीं करता था, तब वह इसकी बुलंद आवाज बने
उन्होंने हिंदू, हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्र की बात पूरी मुखरता से तब की, जब आजादी से पहले और बाद में कांग्रेस की आंधी चल रही थी। तब खुद को धर्मनिरपेक्ष कहना फैशन और खुद को हिंदू कहना अराष्ट्रीयता और प्रतिगामी होने का प्रतीक माना जाता था। वह हिंदू और हिंदुत्व के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण समय था। ऐसे समय में वह सड़क से लेकर संसद तक बहुसंख्यक हिन्दू समाज की आवाज बन गए। अपने समय में वह हिंदी, हिंदू और हिंदुस्तान के प्रतीक थे। स्वदेश, स्वधर्म और स्वराज्य उनके जीवन का मिशन था। उस समय के तमाम दिग्गज नेताओं से वैचारिक विरोध के बावजूद उन सबसे उनके निजी रिश्ते अच्छे थे। सब उनका आदर करते थे।
उनके ब्रह्मलीन होने पर इंदिरा गांधी और अटलजी ने क्या कहा था?
महंत दिग्विजय के ब्रह्मलीन होने पर पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी और स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी ने लोकसभा में आयोजित श्रद्धांजलि सभा में जो कहा था, वह काबिले गौर है।
शिक्षा और धर्म के क्षेत्र में श्री महंत का स्थान बहुत ऊंचा थाः इंदिरा गांधी
इंदिरा गांधी ने कहा था कि श्री महंत का शिक्षा और धर्म के क्षेत्र में बहुत ऊंचा स्थान था। उन्होंने गोरखपुर विश्वविद्यालय की स्थापना का भी महान कार्य किया। उनका नाम असहयोग आंदोलन से भी जुड़ा था। साइमन कमीशन और हैदराबाद सत्याग्रह से भी वे संबंधित रहे। वे प्रसिद्ध गोरखनाथ मंदिर के महंत थे।
अकेले होने के बाद भी उनकी आवाज इतनी दृढ़ थी कि सुनना पड़ता था: अटल जी
अटल ने कहा था कि महंत दिग्विजयनाथ हमारे साथी थे। इस संसद में कन्धे से कन्धा लगाकर हम काम करते थे और भारत के निर्माण में योगदान देते थे। वह हमारे स्वाधीनता संग्राम के सेनानियों में से थे। 1921 के असहयोग आन्दोलन में उन्होंने सक्रिय रूप से भाग लिया था। उनका क्रान्तिकारियों के साथ घनिष्ठ सम्पर्क था। ऐतिहासिक चौरीचौरा काण्ड में उन्हें गिरफ्तार किया गया था। साइमन कमीशन का बहिष्कार करने के लिए उन पर विदेशी सरकार की कोप दृष्टि पड़ी थी। बाद में साम्प्रदायिकता एवं राष्ट्रीयता के प्रश्न पर उन्होंने कांग्रेस से नाता तोड़ा। हिन्दू महासभा में शामिल हुए और अध्यक्ष बने। हालाकि संसद में उनकी आवाज अकेली थी। अपने दल के वे एकमेव प्रतिनिधि थे, लेकिन जो कुछ कहते, बड़ी दृढ़ता के साथ कहते थे। उनके विचारों से मतभेद हो सकता था, किन्तु उनकी देशभक्ति, प्रामाणिकता और अपने विचारों के साथ तथा अपनी रोशनी के अनुसार देश की सेवा करने की जो भावना उनमें थी, उससे कोई मतभेद नहीं रख सकता था। अकेले होने के बाद भी उनकी आवाज इतनी दृढ़ थी कि सुनना पड़ता था।
हिंदू महासभा के हिन्दू राष्ट्रपति भी थे महंत दिग्विजयनाथ
उल्लेखनीय है कि कांग्रेस से मोहभंग होने के बाद वह हिंदू महासभा से जुड़ गए। 1961-1962 में वे हिंदू महासभा के हिंदू राष्ट्रपति निर्वाचित हुए। 1967 में वह महासभा से चुने जाने वाले एकमात्र सांसद थे। गोरक्षपीठ की परंपरा के अनुसार वह भी बहुसंख्यक समाज में जाति-पाति, छुआछूत आदि के मुखर विरोधी थे। हिंदू धर्म के सभी संप्रदायों को एक मंच पर लाने के लिए 1965 में आयोजित विश्व हिंदू धर्म सम्मेलन की सफलता में उनका महत्वपूर्ण योगदान था। उनके ही प्रयासों से तीन पीठों के शंकराचार्य उस आयोजन में आए। इसका उद्घाटन पूर्व राष्ट्रपति स्वर्गीय डॉ. राधाकृष्णन ने किया था।
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